Friday 2 July 2010

समाहित कर देना अपने-आपको

सुनता हूं कि मैं अबके निकाला गया तो हाऊंगा पृथ्वी लोक के बाहर
भेज दिया जाऊंगा किसी और लोक में
जहां बहुत कुछ होगा
शायद हों कई जाने-पहचाने चेहरे
समय की गर्द में समाये हुए
मैं उस लोक की तैयारियों में लगा हूं
सोचता हूं क्या-क्या ले चलूं वहां
वहां ले जाने की क्या हो सकती है संभावित विधियां
लेकिन ले जाने की कोशिश क्यों और क्यों की जाये
जबकि हम ख़ुद को ही नहीं ले जा सकते ठीक-ठाक उस रूप में
जिस रूप में हैं हम अभी

मैं सोचता हूं
क्या मुझे पहचान लिया जायेगा आसानी से
जो मैं हूं उसे भी
यदि यह नहीं हुआ तो मेरे अपने मुझे वहां पहचानेंगे कैसे

यह पहचान का संकट कब दूर होगा
कभी होगा भी या नहीं
जो अरसे बाद भी बना हुआ है इस पृथ्वी लोक में भी
क्या हम किसी एक लोक में महज़ इसलिए तो नहीं आते कि बना पायें अपनी पहचान
और फिर चल दें दूसरे लोक में इसी काम पर

यहां, इस पृथ्वी लोक में क्या पहचान लिया गया है मुझे
मैं हूं जिनका बेहद अपना क्या वे इसे मान पाते हैं कि
मुझे हो सकता है उनसे किसी तरह का कोई गहरा ताल्लुक
मैं जिनका होने की कोशिश में रहा ता-उम्र
वे देखते हैं गहरे संशय से मुझे
क्या किसी का होना होता है इतना कठिन
कि यह अजूबा लगे
क्या यह अविश्वसनीय क्रिया है किसी में समाहित कर देना अपने-आपको।

2 comments:

  1. pahchan ka sankat sachmuch bada hai. sudndar kavita. komal bhav

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  2. बहुत गहरा चिन्तन..रचना के माध्यम से.

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