Friday 2 July 2010

निहितार्थ के लिए

मैंने सम्पादक से कहा
यह कविता नहीं आंदोलन है
जवाब मिला-इसे किसी संगठन के हवाले कर दो
उसे इसकी यादा ज़रूरत होगी
क़िताबों के ताबूत में दफ़न नहीं होनी चाहिए क्रांतियां
उसे चाहिए आम जनता की शिरकत

मैंने संगठनों से कहा
यह लो भई
यह आंदोलन नहीं आग है
दहकते हुए अंगारे
चिंगारी से बढ़कर

तब तक संगठन एनजीओ की शक्ल ले चुके थे
खैर तो यह हुई कि उन्होंने मुझे भठियारों के पास भेज दिया
कहा वहीं है आग का असली कद्रदान
वह कर पायेगा आंच व तपिश का
एकदम सही इस्तेमाल

मैंने वैसा ही किया
भठियारे से कहा
यह आग नहीं कोयला भी है
बल्कि तुम्हारे लिए तो कोयला ही
जब-जब चाहोगे इसकी मदद से
लाल दहकते अंगार से भर उठेगी तुम्हारी भट्ठी
इसका कोयला कायम रहेगा जलने के बाद भी
कई-कई सदियों तक
पुश्त दर पुश्त
कोयले की यह असीम विरासत तुम सम्भालो

उसने कहा
ले जाओ इसे किसी गांव की गृहीणी के पास
वहां इसकी सख़्त ज़रूरत है
वहां नहीं है ईंधन
जलावन नहीं बचे अब गांव में
बोरसियां तक ठंडी पड़ी हैं
कोयला तो गांव तक पहुंचता ही नहीं

मैं खुश था
मिला गया था मुझे सही ठौर
मैं गांव-गांव घर-घर घूमा
मैंने गृहीणियों से कहा
इसे रखो सहेज कर
यह ईंधन भर नहीं है
कि झोंक दो चूल्हे में
ताप जाओ किसी ठंडी रात में जला एक अलाव की तरह
यह और भी बहुत कुछ

इसका स्वाद तुम्हारी रोटियों में पहुंच जायेगा
दौड़ने लगेगा
तुम्हारी धमनियों में
तुम्हारे रोम-रोम में समा जायेगा

रफ्ता-रफ्ता यह ईंधन ज़रूरी हो जायेगा तुम्हारी सांसों के लिए
यह कविता की तरह है
बल्कि यह कविता ही है
उत्फुल्ल होते लोग सहसा उदास हो गये
उन्होंने मुझे लौटा दिया एक और पता दे
यह सम्पादक का था
अब मैं कहां जाऊं..

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