Friday 30 July 2010

मेरे लिए कविताः वक्तव्य

॥ एक॥
मेरी किसी भी काव्यकृति में कविता पर मेरा वक्तव्य नहीं है। हालांकि इसके औचित्य के बारे में कभी गंभीरता से मैंने सोचा नहीं है। फिर भी मन है कि अपनी रचनाशीलता पर भी कुछ कहूं। क्या होती है कविता-यह मेरा अविष्कृत नहीं है, इसे परम्परा से ही प्राप्त किया है। अपनी किन्हीं शर्तों पर शायद अन्ततः नहीं बल्कि अपनी सीमाओं में। लिखना शुरू कर दिया था विधिवत बचपन में ही। जब मैं आठवीं कक्षा में पढ़ाता था मेरी पहली कविता छपी थी लेकिन भले बुरे की जो भी समझ विकसित हुई 1989 के बाद ही जब मैं कोलकाता आया और लगभग यहीं का होकर रह गया। इसके पहले का लेखन अभ्यास भर मान पाता हूं। पहली कविता लिखी थी प्रेम पत्र में। वह प्रेम पता नहीं कहां कब छूट गया, था भी या नहीं लेकिन कविता अब भी है आस-पास। नहीं भी हो तो भ्रम अवश्य है कि कविता से मेरा सरोकार है। कविता मैं क्यों लिखना चाहता हूं-बचना चाहते हुए भी?क्या पता। लिखने से बचना चाहता हूं-निछाह जीवन में उतरने के लिए, ताकि जी रहा होऊं तो कहीं भरपूर जीने से थोड़ा बचाकर उस जी रहे होने को स्मृति कोष में भरने की विवशता न रहे। सीधे निछक जीवन को पा लूं लेकिन नहीं। जहां जीने लायक कुछ नहीं लगता वहां एक आधार मिलता है कविता का कि इस स्थिति का रचनानुवाद उस अनुभव को लगभग प्रायोगिक या ऐच्छिक घटना क्रम में बदल देता है। और उन एकान्त क्षणों में जब मेरी विवशता मेरी रचनास्पद स्थितियों को समझने जानने वाला कोई नहीं होता-कविता को स्थानांतरित कर देता हूं।
कभी-कभी मुझे यह भी लगता है जैसे कविता कर्म मुझे अन्दर ही अन्दर संघर्षशील और यातनास्पद बनाने में जुटा हुआ है पता नहीं यह मेरे हित में किस प्रकार है। और जब भी अपने संघर्षों को लिपिबध्द करने बैठता हूं आत्मनिर्वासन पा जाता हूं। सार्वजनीन होने की कौन सी विवशता है? आत्मछल तो नहीं यह आत्मनिषेध। मैं चाहता हूं प्रत्येक कविता में भरसक मैं कहीं न कहीं होऊं। इस तरह की वह मेरी ही हो पाये। कविता मेरा मोनोग्राफ हो। अपने सामान्य अनुभवों के विशिष्ट आस्वादों पर लिखने की कोशिश मेरी रही है और मेरी संवदेनशीलता मुझे मेरे रचनाकर्म में बहुत काम आती है। ठीक वैसे ही जैसे मेरा क्रोध। विवेक सम्मत क्रोध की अभिव्यक्ति भले ही पिछड़े साहित्य की श्रेणी में आये मगर वह जितना, जहां भी आ पाया है वह मेरे लिए विशेष संतोष का है। और जहां क्रोध नहीं दीख पड़ेगा वहां क्रोध से अधिक कुछ है जो कातरता में बदल गया हो शायद। मुझे लगता है कि साहित्य में क्रोध का आशय बदलाव और विरोध का मुखर और तीव्रतम स्वर है। तिरस्कार और व्यंग्य भी मुझे कम महत्व के नहीं लगते। खास कर निहत्थे आदमी के पास अगर हो कविता तो। सन्त मुद्रा की कविता मेरे लिए कठिन है जहां आवेगों के लिए हिकारत हो। कविता के लिए विचार मुझे आवश्यक लगता है मगर खलिस विचार को कविता नहीं मान पाता। कविता में भावुकता दिखनी चाहिए और विचार केवल उसे संचालित, संयमित या दिशा-निर्देश देने वाला तत्व भर हो। कविता के लिए भावुकता को मैं विचार से कम मूल्यवान नहीं मान पाता हूं।
॥दो॥
-मैं इस सवाल को अपनी सुविधानुसार बदलना चांगा। मैं चाहता हूं कि यह टटोलने की कोशिश करूं कविता भी क्यों? जब अभिव्यक्ति के तमाम उपकरण मौजूद हों ऐसे में कविता की आवश्यकता आखिर क्योंकर है?क्या और आखिरकार कविता में क्या है ऐसा जो हो सकता है केवल कविता में?कोई नहीं ले सकता जगह इस विधा की। आखिर क्या होता है कविता में कि वह जीवन में आती है तो जीवन की चाल बदल जाती है। बदल जाते हैं जीवन के आशय। क्यों माना था धूमिल ने कविता आदमी के होने तमीज है। क्या कविता आदमी को अधिक आदमी बनाती है। क्या होता है कविता में वह जब टपकती है किसी की बातों से तो शब्द हमारी रूह को भी छूने लगते हैं। क्या है कविता में कि वह शब्दों से ले जाती है हमें परे। वह क्या है जो विचारों को कई बार कर देती है बौना। रह जाते हैं सारे के सारे तर्क निरर्थक। क्या है कविता में जो मिल जाती है भाषण में तो चमक जाता है नेताओं का वक्तव्य। क्या है कि वह कि बाजार में नहीं बिकती पर मजबूर रहते है उत्पादों के विज्ञापन उसी पर आश्रित। क्या है कविता में कि वह कभी नहीं पडती पुरानी। मैं मानता हूं कि मैंने पहली बार अनजाने में ही अपने पहले प्रेमपत्र में कविताएं लिखी थी। और फिर मांने मुझे उपन्यास लिखते हुए देखा तो डर गई कि यह अब पढाई नहीं कर सकेता तो लेखन पर प्रतिबंध लगा दिया। और अपनी बात को संक्षेप में, कम समय में लिखकर उसे आसानी से छिपा लेने की गरज से कविता लिखनी शुरू की थी। पर अब मां का डर नहीं है फिर भी मैं क्यों लिखता हूं कविताएं मुझे आपने फिर से सोचने पर विवश कर दिया है।
मुझे दूसरी विधाओं में लिखने में कोई दिक्कत नहीं फिर भी कुछ चीजें मुझे लगता है कि केवल कविता में ही संभव है। मैं अपने अनुभव के बारे में तो यही कहना चांगा कि कविता लिखने का अनुभव किसी दूसरी दुनिया के साथ अपने को जोडने का अनुभव है। जैसे कोई और होता है जो हमसे लिखवाता है। जिसे लिखने के वक्त और कई बार लिखे जाने के बाद ही पता चल पाता है कि हमने क्या लिखा है। पहले मैंने प्रयास से कविताएं लिखी थी उनका अनुभव तो गद्य लेखन सा ही है अपनी सुविचारित सोच को शब्द देने की। कहानी मैं तो मैं पहले तय कर लेता ं कि मुझे क्या करना है। भले लिखते वक्त पात्र और परिस्थितियां फिर मेरी लेखनी पर कब्जा कर लेते हैं मगर कविता में पहला संकेत तक मेरा नहीं होता। इसलिए कविता मुझे ज्यादा भरोसे की लगती है। मैं अपनी कविता पर अधिक यकीन करता हूं। कविता में अगर कोई लेखक मक्कारी करता है तो वह पकडी भी जा सकती है। कहानी और लेख लिखने के बाद मुझे लगता है कि एक बोझ था मन पर जो निकला गया। यह विधाएं बोझ कम करने का अनुभव देती हैं। मगर कविता। उसके लिखने के बाद लगता है कि हमें किसी परी ने अपने पंख दिए हों उधार कि जाओ उड लो थोडा तुम भी। कई बार अदृश्य और कई बार बेहद परिचित पर अपनी ही खोई हुई दुनिया, यादों, घटनाओं और भूले बिसरे शब्दों की यात्रा का आनंद देती है कविता रचने के बाद की अनुभूति। कई बार तो पूरी देह रोमांचित और झंकृत हो उठती है। कविता की रचना मेरे लिए जोखिम भरी भी है, क्योंकि मैं कब कवि नहीं रह जाऊंगा नहीं जानता। मैंने कई बार टटोला है कि क्या मेरे अंदर कोई कवि है। तो निराशा हाथ लगती है। पर वह एकबारगी मुझे हैरत में डाल देता है अपनी रचनाओं से। और सच कं तो कई बार वह इतने बदले तेवर में होता है कि लगता है कि यह पहले वाला कवि नहीं है यह तो कोई और है। मैं अपनी कविताओं के बदले हुए तेवर का साक्ष्य भर होता हूं। इसलिए कुछ नहीं कर सकता। लोग कहते हैं कि तुम्हारी कविता का स्वर बदला बदला है तो भी मेरे पास कोई स्पष्टीकरण नहीं होता। कोई तर्क नहीं होता।
॥तीन॥
कविता का सबसे अधिक सरोकार अगर किसी से है तो वह आज़ादी ही है। आज़ादी को सबसे पहली बार शायद कविता ने ही परिभाषित किया होगा क्योंकि स्वप्नों की भाषा या कहें मातृभाषा कविता ही है। स्वप्न हमारी आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति न सिर्फ़ सुगमता से कर लेते हैं बल्कि उसके लिए उन्हें किसी तारतम्य की आवश्यकता नहीं होती। स्वप्न अपने साकार होने के मार्ग तलाश नहीं करते बल्कि वे उसकी इच्छा जगाते हैं। कविता चूंकि ऐसी विधा है जिसमें न तो कार्य-कारण के सम्बंध को स्थापित करने की विवशता होती है और ना ही उन युक्तियों को गढ़ने की कि किस प्रकार स्वप्न यथार्थ का रूप ले सकते हैं। आज़ादी का जो भी ख़याल आया होगा उसकी पहली अभिव्यक्ति कविता में ही हुई होगी और इसलिए क्रांतिकारियों की कविताएं हमेशा रिझाती रही है। कई बार तो ऐसा लगता है कि जो ख़्वाब नहीं देखता, जो कविता को नहीं चाहता वह क्रांतिकारी हो ही नहीं सकता।
देश की आज़ादी को कविताओं ने अपने स्वप्नों से सींचा और उस लक्ष्य की प्राप्ति की विकलता को भी बढ़ाया, संघर्ष को भी नयी चमक दी किन्तु कविता ने कभी भी आज़ादी को ही लक्ष्य नहीं बनाया वह देश के लोगों को एक साधन की तरह चाहिए थी, क्योंकि जो आज़ाद नहीं होगा वह मनुष्यता की बेहतरी के लिए कुछ कर ही नहीं सकता। भले ही राजनीति ने आज़ादी का इस्तेमाल अपने लक्ष्य के रूप में किया और सत्ता हस्तांतरण के बाद वह संतुष्ट हो गयी। हालांकि कविता के लिए आज़ादी माध्यम ही थी और रहेगी। उसे आज़ाद मनुष्य इसलिए नहीं चाहिए कि वह दूसरों के शोषण के नये औज़ार बनाये। दूसरों को अपने विकास की सीढ़ी तरह इस्तेमाल करे। कविता के लिए आज़ादी का औचित्य सबके लिए अमन-चैन और शोषणहीन समाज की स्थापना है।
भारत के मौज़ूदा परिप्रेक्ष्य में हम देखें तो पायेंगे कि कविता के साथ विश्वासघात हुआ है। आज़ादी का दोहन हो रहा है। वह कुछ लोगों के लिए असीमित आज़ादी का तोहफ़ा लेकर आयी है। ये आज़ाद लोग कई बार उन लोगों से भी अधिक ख़तरनाक़ हैं जो हमें गुलाम बनाये हुए थे। दूसरों ने हमारा उतना अहित नहीं किया जितना वे कर रहे हैं। आज़ादी के बाद कविता ने मोहभंग झेला। कविता का बड़ा स्वप्न आज़ादी उसे खुशहाली और संतोष देने के बदले सदमे दिये। नयी स्थिति ने उसे किसी हद तक उद्देश्यहीनता क स्थिति में ला खड़ा किया किन्तु जल्द ही उसने अपने औचित्य का एहसास करा दिया। अपने ही कद्दारों की कलई खोलनी शुरू की। अपनी आस्तीनों की हक़ीक़त बयान की किन्तु अब भूमंडलीकरण और उदार बाज़ार व्यवस्था ने शोषण का इतना महीन जाल बुना है कि देश की आम जनता को उसका भान तक नहीं हो पा रहा है। अब इस बाज़ार को सबसे बड़ा ख़तरा कविता से है और कविता को बाज़ार से। बाज़ार ने कविता का स्थान छीनने की कोशिश शुरू कर दी है। सबके सपनों, आशाओं, आकांक्षाओं पर बाज़ार धीमें-धीमें अपना प्रभाव छोड़ रही है। नयी आकांक्षाओं, नयी दुनिया, नये लोगों के जन्म का जो रूपाकार कविता गढ़ती है वह बाज़ार कर रहा है। बाज़ार विभिन्न माध्यमों से ऐसा आदमी, ऐसी रुचियां, ऐसे सपने परोस रहा है जिसका विस्तार बाज़ार के उत्पादों का विस्तार करेगा।
आज़ादी के बाद कविता अपना स्थान खो रही है। कविता के सारे कोमल, चमकदार, संवेदनशील तत्त्व विज्ञापन लील चुके हैं। इससे पहले कि बाज़ार कविता को भी अपने ढंग से संचालित करने की कोशिश करे कविता को अपना संघर्ष तेज़ करना होगा। स्वप्न की अभिव्यक्ति कविता में होना जहां मनुष्यता के लिए शुभ संकेत है वहीं बाज़ार की लक्षित अभिलाषाओं के रूप में हुई तो यह बेहद ख़तरनाक़ मामला है। परोक्ष रूप से वही हो रहा है क्योंकि नयी पीढ़ी के स्वप्नों को दिशा बाज़ार दे रहा है। बाज़ार जो कुछ अभिव्यक्त कर रहा है वही आकांक्षा के रूप में हमारे स्वप्नों और चाहतों में पैठ रहा है। उपभोग की नयी वस्तुओं की प्रमुख कामना आम जनता की प्रमुख कामना हो जाये तो इससे बढ़कर समाज की क्या विडम्बना हो सकती है।

थैंक गाड

बहुत दिनों बाद
मिले मेरे दोस्त ने बताया
कितना है आजकल वह व्यस्त
कितनी है मुसीबतें आजकल
और कितनी से उबकर उसने
नयी मुसीबतों के घर में रका है क़दम

पूरे समय उसे फ़ुरसत ही नहीं मिली
कुछ और पूछने-कहने की
जैसे कि उसने पूरी तैयारी की हो
यह सब बताने की पहले से ही
जबकि यह हमारी आकस्मिक मुलाकात थी
उसे अलबिदा कहने के बाद
मैंने ली राहत की सांस

थैंक गाड
मैं नहीं हूं इतना व्यस्त
कि दूसरे की बात न सुन सकूं
थैंक गाड
मेरे पास नहीं है इतनी परेशानियां
कि उनका हेल-मेल दूसरे से कराऊं।

निशान

किसी ने बताया
मेरी पीठ पर
पड़ गया है निशान किसी दीवार का
मैंने खोजा
कहां, आख़िर कहां, किसी दीवार के पीछे छिपकर बैठी है वह दीवार
जिसने चुपचाप मेरी पीठ पर लगा दिया है अपना निशान
और मैंने उसे पकड़ ही लिया एक दिन, उस नयी नयी रंगी हुई दीवार को रंगेहाथ
जब वह मेरी पीठ पर एक और निशान लगाने की कोशिश में थी
लेकिन मैं यह देखकर हो गया अचम्भित
उस दीवार पर पड़े थे मेरी पीठ के निशान
ग़नीमत तो यह थी कि किसी ने यह नहीं देखा
मेरी पीठ और दीवार का यह अनोखा रिश्ता
उस दिन से कई बार मुझे लगा
मेरी पीठ सहसा तब्दील हो जाती है दीवार में
और दीवार भी शायद बदल जाती हो मेरी पीठ में
मैं चुपके से अक्सर सहला आता हूं
उस दीवार को
जैसे मैं अपनी पीठ पर ही
हाथ फेर रहा होऊं।

होली

बेटी के लिए कविताएं:एक
कुत्ते को रंगा
रंगा मुर्गियों को
चूजों के कोमल परों पर लगाया अबीर आहिस्ते से
नीबू के पत्तों पर बेअसर रहा जलरंग
नारियल के पत्ते पर भी फेंक कर देखा
केले के पत्ते भी नहीं बचे
थोड़ी सी इधर वाली घास पर
जहां नंगे पांव टहलने को मना करती है अक्सर तेरी मां
मां की पूरी का रंग भी थोड़ा कर ग लाल
थोड़ा हरा
उसकी झिड़कियों के बावजूद
उन नंगधड़ंग बच्चों पर भी फेंक आ उन्हें दौड़कर पिचकारी के रंग
पर बारबार हर रंग की आजमाइश होती रही
इस बाप पर

मैं बचूं भी तो कैसे
कुदरत का हर रंग
तेरा है
तेरा हर रंग
मेरा है.
मैं तेरे खेल का गवाह हूं
मैं तेरे हर खेल का मददगार हूं
क्योंकि पर तू मेरा खेल है
मैं तेरा चेहरा लगाकर छुप गया हूं तेरे अंदर
तू मेरे अंदर है दूसरी काया होकर भी.

संवाद

बेटी के लिए कविताएं:दो
मैं तुमसे संवाद
चाहता हूं
केवल तुम्हारा पिता इसलिए नहीं होना चाहता
कि वंशानुक्रम का यह नियम है
मेरे हावभाव और शक्ल मिल सकती है
जैविकीय कारणों से
मैं तुम्हारी मां से अपने संबंधों के बिना पर ही
नहीं मान सकता तुम्हें अपना उत्तराधिकारी
मैं तुम्हें अपने संबंधों और वजहों से बनाना चाहता हूं अपना
मैं तुम्हारी खुशियों की वजह होना चाहता हूं
मैं तुम्हारी वजह से होना चाहता हूं
जैसे तुम मेरी वजह से भी हो
चाहता हूं रिश्ते की परिभाषा में अपना भी योगदान
मेरे तुम्हारे बीच जो कुछ हो वह केवल खून की वजह से न हो
इस आधार पर कि तुमने लिया है मेरे घर
और मेरी पत्नी के गर्भ से जन्म
हमारा रिश्ता केवल शुक्राणुओं की करामात भर नहीं है
नहीं चाहता कि तुम केवल इस आधार पर बनो मेरा वारिस
कि तुम हो मेरी खानदान की
मैं नहीं चाहता कि तुम्हें किन्हीं टुच्च््राी मर्यादाओं के लिए
बनना पड़े बलि का बकरा
नहीं चाहता कि खानदानी लडकी होने का
तुम्हें उठाना पड़े किसी तरह का को बोझ
जो मुझे भी लगते रहे कभी असह्य
मैं चाहता हूं तुम जानो
रिश्ता बांधता ही नहीं मुक्त भी करता है
और मैं चाहता हूं तुम्हें मुक्ति निःश्वास की तरह नहीं
उत्सव की तरह मिले
वरना लड़कियों के लिए न्दगी पगपग मुक्ति नहीं बंधन है
अदृश्य बंधनों को चुपचाप सहना और झेलना
और इसे नियति ही नहीं स्वभाव बनाना है
मैं तुम्हें बताना चाहता हूं तुम्हारी मां के उलट
के हर पुरूष के अंदर छिपा है एक पशु
की तर्ज पर हर औरत में छिपी है एक डायन
जो खा जाएगी तुम्हारे मासूम सपनों तक को
मार डालेगी उसके भ्रूण तक को
वह जहर भर देगी तुम्हारी कामनाओं के उत्स तक में
सका तुम्हें भान तक भी न होगा
एक गहरा अविश्वास लगातार तुम्हारी धमनियों में दौड़ने लगेगा
एक भय जो तुम्हारा पीछा करेगा तुम्हारी नींद में
औरत को एक छिपे खजाने की तरह मिला है
क्रमिक आत्महत्या का हुनर
से वह थाती की तरह सहेजती है अपनी बेटियों में.
वह सौंदर्य को श्राप में बदल डालती है क बार.
वही सौंदर्य जो अब दुनिया में उपहार के बदले
हथियार की जगह लेने लगा है.

स्वरलिपियां

बेटी के लिए कविताएं:तीन
वह स्वरलिपियां हैं मेरी खातिर
मैं सौंदर्यबोध के बावजूद
नहीं चाहता बदलना
उन आलमारियों का रंग स पर तुमने
चाक से ककहरा लिखना सीखा था
कि मैं कहीं खुद उधड़ने की पीड़ा का दंश न झेलूं
नहीं चाहा कि उधड़े जाएं वे स्वेटर
जो तुमने पहने थे अपनी शुरूआती सर्दियों में
नहीं फेंकना चाहता वह कूड़े का अंबार
जो तुम्हें कभी तुम्हारी पहली ज्ञासाओं
और अबूझ दुनिया का आकर्षण रहीं
पता नहीं कहां क्या छिपा हो
जो तुम्हें
एकाएक मिल जाए कभी
और तुम्हें लगे अरे यह तुम यह तुम थी
और यह कभी था तुम्हारी दुनिया का अभिन्न अंग
और मेरे लिए तो शुरू और बाद में का को अर्थ नहीं है
मन में तो तुम्हारी विभिन्न अवस्था की मुद्राएं
अक्सर गड्डमड्ड होती रहतीं हैं
और हर मुद्रा लगती है उतनी ही मनोहर
हर हरकत लगती है थोड़ी देर पहले की हो
इसलिए मैं चाहता हूं कायम रहे स्मृतियां
आखिरकार तुम्हें जाना ही है किसी और घर
और हमें रहना होगा स्मृतियों के ही सहारे
कितना असह्य पर तय सा है
आदमी का दुनिया से
और बेटी का अपने ही घर से विदा होना
और हमें तो दोनों के लिए तैयार होते रहना है तिलतिल
हमारी उपस्थिति में अपने अदृश्य वजूद के साथ
कहीं न कहीं छिपी रहती है विदा.

तुमसे

बेटी के लिए कविताएं:चार
मैं देखना चाहता हूं तुम्हारी आंखों से वह दुनिया एक
बार फिर
से मैं छोड़ आया था काफी पीछे
मैं तुम्हारे सपनों में पैठना चाहता हूं
मैं चाहता हूं तुम्हारी हर प्रतिक्रिया का साझेदार बनना
इन सबसे बढ़कर मैं चाहता हूं
इस न दुनिया की न संवेदना का स्वाद
तुम्हारे मार्फत मुझ तक पहुंचे
मुझे तुम्हें कुछ सीखाना नहीं सीखना है
मुझे सीखनी है न भाषा और न संवेदना की लय
मुझे सीखनी है एक और मातृभाषा तुम्हारे व्याकरण में
मैं चाहता हूं तुम्हारी मार्फत
भूसे में दबा वह आम खोजना
जो मैंने अपने बचपन में दबा कर चला आया था
अपने गांव से शहर
मैं जानता हूं कि तुम केवल तुम ही खोज सकती हो
उसकी गंध के सहारे जो मुझ में तो अब खो चुकी है पर
तुममें जरूर कहीं न कहीं अभी होगी सुरक्षित
मैं चाहता हूं उन किस्सों को याद करना
किस्सों से दृश्य और धुन चुनना
जो मेरी दादी ने सुनाए थे मुझे
पर तुम तक नहीं पहुंची उसकी को आंच
मैं चाहता हूं तुम भी उससे तपो
मैं चाहता हूं अपने गांव की गांगी नदी के पानी में
फिर से धींगा-मस्ती करना तुम्हारे माध्यम से
जहां तुम कभी नहीं गयी.
मैं चाहता हूं तुम मेरे गांव एक बार जरूर जाओ
यकीन है अमरा तुम्हें भी पहचान लेगी
मेरे बिन बताए और तुम भी बिना किसी से पूछे
पहुंच जाओगी उन सभी जगहों पर जहां मैंने
अपना बचपन खोया है
और से खोजना तुम्हें भी अच्छा लगेगा.

उपलब्धि

बेटी के लिए कविताएं:पांच
तुम वह हो जहां मुझमें खुद को पाया है तुम्हारी मां ने
जहां हम दोनों ने मिटा दिया है अपना स्वतंत्र अस्तित्व
तुम हमारी संधि हो
तुम हो हमारा सेतु
तुम हो वह
जहां से
हम चाहें भी तो लौट नहीं सकते अपने आप तक
तुम हमारे स्व के खोने की परिभाषा हो
तुम हमारे विलय की उपलब्धि हो.
तुममें झांकती है मेरी मुस्कान
तुम्हारे स्वर में है तुम्हारी मां की तान
तुममें मेरी शरारतें कहीं छिपी हैं
मां की आदतें तुममें रची बसी हैं
मेरी संवेदनशीलता तुमसे बंधी है
तुम्हारी मां की काया तुममें नधी है.
पर हम नहीं चाहते
तुम बनो हमारा प्रतिरूप
तुम पाओ प्रकृति से अपने होने की धूप
अपना छंद ही तुम्हें साधेगा
हम दोनों में वह शत्रु होगा
जो तुम्हें बांधेगा.

Thursday 29 July 2010

वेतन और आदमी

हर महीने की सात तारीख को
अपना वेतन हाथ में लेते हुए
सोचते हैं वेतनभोगी
अब मैं इसे खाऊंगा
पूरे तीस दिन
सिर्फ़ तीस दिन ही नहीं
कोशिश रहेगी बचा रहे
अधिक से अधिक दिनों तक खाने लायक
जुटाने लायक जीने की तमाम सुविधाएं
देने लायक मुसीबत के दिनों में दिलासा
कि है हमारे पास भी कुछ ऐसा
जो कर देगा हमारी मुश्किलें आसान
और कुछ नहीं तो उसके होने से
आ रही है बेखटके नींद

कोशिश रहेगी
उस समय तक बचा रहे
जब तक बची रहें सांसें
बची रहें आल औलादें
यह बात दीगर है
पुरजोर कोशिश के बाद भी
वह घट जाता है तीसरे ही हफ््ते
और वे जानते हैं
अगले महीने भर लगातार
हमें निगलता रहेगा आगामी वेतन
उसकी पूरी कोशिश रहेगी
वह हमें निगल जाये पूरा का पूरा
तनिक भी न बची रहे ऊर्जा
उसकी संभावना तक दूर-दूर

कई बार तो वह
लील जाना चाहता है
हमारी अस्मिता, हमारे सपने
हमारी ना कहने की हिम्मत
हमारी हंसी-खुशी के पल

वेतन चाहता है
हम बचे रहें बस उसके काबिल
रहें बस उसी के लिए
उसी के बारे में सोचते हुए
इस तरह यह सिलसिला
चलता रहता है
बरस दर बरस
चलती रहती है
एक होड़ निगल जाने
और बचा लेने के बीच।

सूर्य की सिंचाई

जब सुबह वे कर रहे होते हैं मार्निंग वाक
देखते हैं
जल रही होती हैं कई लोगों के घर के सामने बत्तियां
जिनका स्वीच बुझा देते हैं बूढ़ों की एक टोली के बुजुर्ग
कोसते हैं उनकी लापरवाही को
कि रात में वे लाइट जलाना नहीं भूलते
लेकिन सुबह बत्ती बुझाना
भूल जाते हैं

उन्हें याद नहीं रहता कि इतना तड़के तो नहीं टूट जाती सबकी नींद

सब तो
नहीं करते इन्तज़ार सुबह का
जैसा वे करते हैं बेताबी से
कि सुबह हो और वे जायें टहलने उन लोगों के साथ
जो उनसे भी ज़्यादा बेकरारी से करते हैं इन्तज़ार सुबह का
क्योंकि उनके पास किसी और चीज़ का इन्तज़ार बचा नहीं होता

और दरअसल वे जिसका करते रहते हैं इन्तज़ार
उसके ख़याल से ही उड़ी रहती हैं उनकी नींद
जिसे वे छिपाते हैं से

हां सबको पता होता है कि वे कहीं जाने के लिए प्रतीक्षारत हैं
और किसी भी क्षण उन्हें जाना पड़ सकता है

उनके जाने की उनसे अधिक उनके क़रीबी लोगों को रहती है प्रतीक्षा

वे काफी अरसे तक अपने घर में ऐसे रहते हैं जैसे रह रहे हों प्रतीक्षालय में

मार्किंग वाक करते समय वे मौसम की चर्चा करना नहीं भूलते
लेकिन दूसरी सारी चर्चाओं से बचते हैं
लौटते समय देखते हैं
कुछ लोगों को लोटे से सूर्य को जल चढ़ाते हुए
और कहते हैं इसीलिए, हां इसीलिए नमी रहती है प्रातः काल की फिज़ा में
रोज कहीं न कहीं, कोई न कोई, कर रहा होता है
सूर्य की सिंचाई।

उदासी

यह क्या है जो ओढ़ रखा है
किसी ने सहसा पूछा
तो मैं सचमुच सोच में पड़ गया
मैंने इस बात पर गौर किया
आईने के सामने ठिठका रहा बड़ी देर तक

बत्ती जलाई
फिर-फिर निहारा
जी नहीं माना तो अरसे से बंद पड़ी खिड़की भी खोल दी और देखा
लेकिन नहीं
कुछ नहीं पता चला कि
मैंने आख़िर क्या ओढ़ रखा है
फिर मैं हैरान हुआ
कि मुझे क्यों हुआ शुबहा
क्या मैं बगैर परखे
विश्वास और दावे के साथ
नहीं कह सकता था
क्या
यही कि यह झूठ है
यह झूठ है
लेकिन क्या झूठ है
क्या पता वह मेरी त्वचा के बारे में ही कह रहा हो
कह रहा हो मेरे पसीने के बारे में
और नहीं तो एक हल्के से
अंधेरे के बारे में तो कहा ही जा सकता है
जो उजाले की कमी में बेशक हो सकता था कुछ गाढ़ा
फिर मैंने छोड़ दिया उस ढंग से सोचना
मैंने सोचा
क्या पता वह पूछ रहा हो कोई
एक शाश्वत सा सवाल
वह पूछ रहा हो किसी कंबल के बारे में
जिसके बारे में कुछ भी कह गये हैं कबीरदास
और मेरे ध्यान कभी गया ही नहीं उस ओर

जस की तस रखने भर की बात ज़रूर सुनी थी
मगर मैं सहेजने के कला से परिचित कभी नहीं रहा
फिर ख़याल आया कि आज के दौर में नहीं हो सकता कोई आध्यात्मिक सा सवाल
हो सकता है उसने थोड़ा परे हट
पूछा हो मेरी उदासी के बारे में
कहीं ऐसा तो नहीं वह मेरी ढाई इंच मुस्कान के ही पीछे पड़ा हो
जो खलती रही है रह-रहकर
मेरे वज़ूद को

इन सबको छोड़कर मैंने उस ओर देखा
जिधर से पूछा गया था सवाल मगर वह एक कागज़ का टुकड़ा था
जिस पर लिखा था
छाते के लिए कोई विज्ञापन
मैं बहुत देर तक
मुस्कुराता रहा
कि बच गया एक जवाब से।

अर्धविराम

क्या किसी विधि विरमित हो सकती हैं मेरी लालसाएं
जिन्हें मैं देना चाहता हूं विराम
मैं देर तक सोना चाहता हूं तमाम हलचलों के बीच
कितना अच्छा लगता है कि तमाम हलचलों के बीच कोई होता है अपने-आपमें तल्लीन और डूबा हुआ
और उसकी तनिक भी नहीं लगता उसे भनक
मैं भी वहीं होना चाहता हूं कुछ पलों के लिए ही सही
क्रियाओं के बीच विरमित

बहुत सारी हलचलों के बीच इस तरह से होना
हलचलों को देता है नया सौन्दर्य
सौन्दर्य का एक नया सा कोण
और कई बार तो विराम बन जाता है हलचलों की दुनिया में एक बड़ी हलचल
क्या मुझे सिखा देगा कोई अर्धविराम
मैं दरअसल खोज रहा हूं ज़रा सी जगह दोनों के बीचोबीच।

दंगे के बाद

इस बिला गये आदमी की
हो रही है शिनाख़्त
शिनाख़्त दंगे के बाद

दंगे के बाद
अपनी पूरी खूराक़ पाता है गिध्द
उससे अधिक वह आंख
जो आदमी को बांट देती है
गिध्द से पहले ही टुकड़ों में
टुकड़े उनके नुकीले संतोष में शामिल हो जाते हैं

दंगे के बाद मोहल्ले
गर्भपात के बाद औरत की उदासी होते हैं
ऐसा नहीं कहूंगा
यह कविता के ख़तरनाक़ कसीदे के
मुलायम आस्वाद का मामला नहीं है

दंगा शब्दों के रद्द हो जाने की
एक प्रक्रिया है
जो शब्दों की ग़लतबयानी का प्रतिफलन है
दंगा एक निशानेबाज़ शिकारी का
मचान से गिर जाने का दुःख है

दंगे के बाद
बचा हुआ आदमी
अपने भीतर मरता है
कसाई देखता है हिकारत से अपने हथियार को
गौर से बकरियों को
सोचता है कितना फ़र्क है
आदमी और बकरी में

दंगे के बाद आदमी ध्यान से पढ़ता है
नाम और सोचता है गंभीरता से नामों के बारे में
डर जाता है सोचकर कि
जानते हैं लोगबाग उसका नाम।

हावड़ा ब्रिज

बंगाल में आये दिन बंद के दौरान
किसी डायनासोर के अस्थिपंजर की तरह
हावड़ा और कोलकाता के बीचोबीच हुगली नदी पर पड़ा रहता है हावड़ा ब्रिज
जैसे सदियों पहले उसके अस्थिपंजर प्रवाहित किये गये हों हुगली में
और वह अटक गया हो दोनों के बीच

लेकिन यह क्या
अचानक पता चला
डायनासोर के पैर गायब थे
जो शायद आये दिन बंद से ऊब चले गये हैं कहीं और किसी शहर में तफरीह करने
या फिर अंतरिक्ष में होंगे कहीं
जैसे बंद के कारण चला जाता है बहुत कुछ
बहुत कुछ दबे पांव

फिलहाल तो डायनासोर का अस्थिपंजर एक उपमा थी
जो मेरे दुख से उपजी थी
जिसका व्याकरण बंद के कारण हावड़ा ब्रिज की कराह की भाषा से बना था
जिसे मैंने सुना
उसी तरह जैसे पूरी आंतरिकता से सुनती हैं हुगली की लहरें

क्या आपने गौर किया है बंद के दिन अधिक बेचैन हो जाती हैं हुगली की लहरें
वे शामिल हो जाती हैं ब्रिज के दुख में

बंद के दौरान हावड़ा ब्रिज से गुज़रना
किसी बियाबान से गुज़रना है महानगर के बीचोबीच

बंद के दौरान तेज़-तेज़ चलने लगती हैं हवाएं
जैसे चल रही हों किसी की सांसें तेज़ तेज़
और उसके बचे रहने को लेकर उपजे मन में रह-रह कर सशंय

बंद के दौरान बढ़ जाती है ब्रिज की लम्बाई
जैसे डूबने से पहले होती जाती हैं छायाएं लम्बी और लम्बी
बंद में कभी गौर से सुनो तो सुनायी देती है एक लम्बी कराह
जो रुकने की व्यवस्था के विरुद्ध उठती है ब्रिज से
और पता नहीं कहां-कहां से, किस-किस सीने से
प्रतिदिन पल-पल हजारों लोगों और वाहनों को
इस पार से उस पार ले जाने वाले ब्रिज के कंधे
नहीं उठा पा रहे थे अपने एकेलेपन का बोझ
देखो, कहीं अकेलेपन के बोझ से टूटकर किसी दिन गिर न जाये हावड़ा ब्रिज

सोचता हूं तो कांप उठता हूं
बिना हावड़ा ब्रिज के कितना सूना-सूना लगेगा बंगाल का परिदृश्य

ब्रिज का चित्र देखकर लोग पहचान लेते हैं
वह रहा-वह रहा कोलकाता
अपनी ही सांस्कृतिक गरिमा में जीता और उसी को चूर-चूर करता
तिल-तिल मरता

सामान्य दिनों में हावड़ा ब्रिज पर चलते हुए
कोई सुन सकता है उसकी धड़कन साफ़-साफ़
एक सिहरन सी दौड़ती रहती है उसकी रगों में
जो हर वाहन ब्रिज से गुज़रने के बाद छोड़ जाता है अपने पीछे
देता हुआ-धन्यवाद, कहता हुआ-टाटा, फिर मिलेंगे
वाहनों की पीछे छूटी गर्म थरथराहट
ब्रिज के रास्ते पहुंच जाती है आदमी के तलवों से होती हुई उसकी धमनियों में
और आदमी एकाएक तब्दील हो जाता है
स्वयं हावड़ा ब्रिज की पीठ में, उसके किसी पुर्जे में
जिस पर से हो रहा है होता है पूरे इतमीनान के साथ आवागमन
और यह मत सोचें कि यह संभव नहीं
पुल दूसरों को पुल बनाने का हुनर जानता है
हर बार एक आदमी एक वाहन एक मवेशी का पुल पार करने
पुल को नये सिरे से बनाता है पुल
हर बार वह दूसरे के पैरों से, चक्कों से करता है अपनी ही यात्रा
पुल दूसरों के पैरों से चलता है अपने को पार करने के लिए
अपने से पार हुए बिना कोई कभी नहीं बन सकता पुल
जो यह राज़ जानते हैं वे सब हैं पुल के सगोतिये

अंग्रेज़ी राज में गांधी जी ने भी बंद को बनाया था पुल
लेकिन अब बंद पुल नहीं है
पुल नहीं रह गया है बंद
सुबह से शाम तक
हर आने जाने वाले से कहता है हावड़ा ब्रिज

यह एक पुल के ख़िलाफ़
आदमी के पक्ष में की गयी कार्रवाई नहीं है
यह पुल के अर्थ को बचाने की पुरज़ोर कोशिश है
और आख़िरकार हर कोशिश
एक पुल ही तो है!

कई बार मुझे लगा है कि बंगाल के ललाट पर रखा हुआ एक विराट मुकुट है-हावड़ा ब्रिज
यदि वह नहीं रहा तो..
तो उसके बाद बनने वाले ब्रिज होंगे उसके स्मारक
लेकिन मुकुट नहीं रहेगा तो फिर नहीं रहेगा।

सप्तक

मेरे जीवन में एक बड़ा विस्फोट था
बेटी का मेरे जीवन में आना
और उससे भी बड़ा
उसके काफी अरसे बाद
मां-बाबूजी की जीवन में वापसी

इस प्रकार खत्म होने लगा
मेरे जीवन और कविताओं का इकहरापन

बेटी व मां-बाप के बीच
बंधी है एक ऐसी महीन डोर
जिससे उड़ रही है मेरे जीवन की पतंग
बह रही हवा एक दिशा से आकर मुझसे होती हुई निकल जाती है दूसरी ओर
मैं एक माध्यम भर हूं
कर रहा हूं एक की आंच का
दूसरे तक हस्तांतरण
एक की भाषा का अनुवाद दूसरी में
जीवन के दो सिरे हैं
इन्हीं दोनों के बीच है
मेरे जीवन का सप्तक
सा से सा के बीच।

मैं ज़रूर रोता

अगर वह कायम रहती अपने कहे पर
और उसके अन्दर-बाहर रह जाता वह मकान
जिसे वह अपना जन्नत कहती है

मैंने देखा, उस मकान के आगे
उग आयी सहसा एक सड़क
जिससे होकर आयेंगे उसके आत्मीय स्वजन
उसकी सखी सहेलियां
उनके बच्चे, डाकिया, अज़नबी
और वह भिखारी भी
जो बुढ़ापे की जर्जर अवस्था में
मुश्किल से चल पाता था

घर के आंगन में उग आये फूल
जिससे महकता है पास पड़ोस तक
घर में ज़गह है मुर्गियों के लिए
गाय के लिए
और मेहमानों के ठहरने के लिए भी
धीरे-धीरे तब्दील हो गया उसका घर
एक पूरे संसार में

मैं ज़रूर रोता
अगर उसका मकान सिर्फ़ उसका घर होता।

जो छूट गया

जो छूट गया है उसका क्या करूं
कहीं छूट गयी हैं
बहुत सारी चीज़ें
बहुत सारी बातें अनकही
बहुत सारे सवालों के ज़वाब
जिसमें था एक बेहद नाज़ुक सा

मैं छोड़ना चाहता हूं अपनी समस्त कामनाएं
एक छोटी सी हां के लिए
उससे पहले मैं चाहता हूं दुनिया की पूरी ताक़त
यदि वह हा न मिले

मैं आगे निकल आया
पता नहीं क्यों?
अभी भी ठीक-ठाक पता नहीं है इस क्यों का

हम आख़िरकार क्यों हैं विवश
पीछे बहुत कुछ छोड़ आने को
जिन्हें हमने अर्जित किया है अपने को खोकर

दरअसल हमें अर्जित करना है खोना
जिसे हमें अपने पाने से बदलना है

छूट गयी है पीछे एक गंध जो शायद याचना से मेल खा सकती थी
सबसे पहले वह बस छूटी अलस्सुबह मेरे गांव के पास के कस्बे से
जिस पर मैं सवार था, फिर छूटने के सिलसिला जुड़ गया

कितना विस्मय है कि होता हूं अक्सरहा अपनी छूटी हुई दुनिया में

क्या मुझे यह दुनिया हासिल करने के लिए जाना होगा एक और दुनिया में
क्यो छोड़े बग़ैर नहीं पाया जा सकता कुछ भी
क्यों है मेरी शिनाख़्त मेरे छोड़े हुए से ही

क्या मेरी उपलब्धियां हैं मेरा हासिल नहीं
मेरा खोना
यह कैसी रवायत है
कि रहना होता है
अपनी खोई हुई दुनिया में।

झूठ की ओट में

सच की रक्षा के लिए तो अब झूठ भी तैयार नहीं
वह जानता है जिसे मारा ही जाना है अन्ततः किसी न किसी मोर्चे पर
क्यों की जाये उसकी रक्षा

कभी न कभी आदतन सच कह बैठेगा कि वह
दुबका हुआ है किसी झूठ की ओट में
और यह सच कहकर वह बढ़ा देगा झूठ की मर्यादा

अब झूठ नहीं चाहता अपने पक्ष में कोई दलील
उसने देखा है ऐसी ही दलीलों के कारण
झूठ नहीं रह सका रक्षणीय
वह डरता है अपने गरिमामंडन से।

इशारा

मैं आ तो गया हूं यहां
पर किसका
किसका इशारा था
इस शहर, इस मोहल्ले, इस किराये के मकान में आने का
क्या राशिफल ने निकाला था कोई निष्कर्ष
कहा था मेरे अवचेतन मन ने मरे सपनों को
हवा ने कहा था-बहो इस ओर
या फिर किसी ने की थी कामना
कि मैं
चला जाऊं
वहां, उस ओर
जहां अपनों को करूं दूर से रह-रह कर याद
मैं उस इशारे को तह से पकड़ना चाहता हूं
जो किसी के आने-जाने को करता नियंत्रित
पर इसके लिए मुझे कहां जाना होगा
यह भी तो असमंजस है
इसे भी तय करेगा
कोई कहां से बैठ चुपचाप।

पैसे फेंको

पुल आया
नदी के नाम, गंगा, कावेरी, सरयू के
करो नमन्
अइंछो अपने पाप-पुण्य पैसे फेंको
जो सम्बंध विसर्जित उनकी
स्मृतियों पर पैसे फेंको

पेट बजाता खेल दिखाता, सांप नचाता एक संपेरा
रस्सी पर डगमग पांव सम्भाले उस बच्चे की हंसी की ख़ातिर
नेत्रही गायक, भिखमंगे, उस लंगड़े, लूले, बूढ़े
अंकवारों में लगे हुए दो बच्चे ले मनुहारें करती
युवती के फट गये वसन पर डाल निग़ाहें पैसे फेंको

दस पइसहवा, एक चवन्नी, छुट्टे बिन एक सगी अठन्नी
जेब टोहकर, पर्स खोलकर, अधरों पर मुस्कान तोलकर
त्याग भाव से, दया भाव से दिखा-दिखा कर पैसे फेंको

बिकती हुई अमीनाओं पर, रूप कुंवर की चिता वेदी पर
सम्बंधों की हत्याओं पर, धर्म के चमके नेताओं पर
मंदिर के विस्तृत कलशों पर, मस्ज़िद के ऊंचे गुम्बद पर
गुरद्वारे के शान-बान पर, सम्प्रदाय के हर निशान पर
शीश नवाकर पैसे फेंको, आंख मूंदकर पैसे फेंको
छीन लिए जायेंगे तुमसे बेहतर है कि खुद ही फेंको
जितने भी हों तत्पर फेंको, डर है भीतर पैसे फेंको
जान बचाओ पैसे फेंको, लूट पड़ी है पैसे फेंको

अनब्याही बहनों के कारक उस दहेज पर
बिन इलाज़ मां की बीमारी के प्रश्नों पर
बनिये के लम्बे खाते पर, टुटहे चूते घर भाड़े पर
रोज़गार की बढ़ती किल्लत
मुंह बाये त्यौहारों के शुभ अवसर से वंचित खुशियों के
नाम उदासी लिखकर उसकी गठरी पर कुछ पैसे फेंको
काम तुम्हारे क्या आयेगा यह भी खूब समझकर फेंको

मुक्ति पर्व यह पैसे फेंको
सपनों पर अब कफ़न की ख़ातिर पैसे फेंको
घर के होते घाट कर्म पर पैसे फेंको
मृत्युभोज अपना जीते जी सोच-सोच कर पैसे फेंको
इस समाज के ढांचे पिचके हुए कटोरे
थूक समझकर देकर गाली पैसे फेंको
कंठ से जैसे फूट रही धिक्कार तुम ऐसे पैसे फेंको
सब कुछ है स्वीकार तुम्हें तो पैसे फेंको
फिर-फिर, फिर-फिर पैसे फेंको।

खोयी हुई नींद

कुछ भी हासिल करने से पहले
हमें खोनी होती है अपनी नींद
बिना नींद खोये
कुछ भी पाना आसान नहीं
दुनिया से लड़ने से पहले
हमें लड़ना होता है अपनी नींद से
और बहुत कुछ पा लेने के बाद
हमें सबसे पहले चाहिए होती है अपनी
खोयी हुई नींद
जिसके लिए हमें लड़ते रहना होता है ख़ुद से
लेकिन वह नहीं आती
तो फिर नहीं आती।

नींद की शहादतें

मेरे जागने में
मेरा सोना शामिल है
मेरे हर काम में
मिल जायेगी
मेरी थोड़ी-थोड़ी नींद

थोड़ी सी नींद
मेरी हंसी में
मेरी गर्मजोशी में
सजगता में

मेरी जीत में छिपी है मेरी नींद की शहादतें

नींद जब हो जाती है पूरी
तो बिस्तर फेंकने लगता है शरीर
उछाल देना चाहता है बल्लियों
हमेशा-हमेशा के लिए
बिस्तर लगने लगता है
एक फ़ालतू सी शै
जैसे ख़्वामख़्वाह जगह घेर रखी हो उसने
घर के महत्त्वपूर्ण कोनों में

नींद जब हो जाती है पूरी
वह बजने लगती है हमारी धमनियों में
सितार की तरह

पूरी हुई नींद का उजाला
फैलने लगता है चारसू
हम यूं देखते हैं पूरी दुनिया को
जैसे पहले पहल देख रहे हों
कुदरत का करिश्मा
नींद फिर लौट आती है
चमत्कार की तरह
उसकी आहट के आगे
धीमी पड़ने लगती है बाक़ी आवाज़ें
आश्चर्य की यह दुनिया
धीरे-धीरे जाने लगती है हमसे दूर
खोने लगती है हमारी याददाश्त
फ़ीका पड़ने लगता है हर स्वाद
हम जाने लगते हैं एक और अनजानी दुनिया में
लेकिन हमें नहीं होती कत्तई तकलीफ़
नींद जब आती है
तो बस आती है
सब कुछ छीन लेती है
और हम अपने को कर देते हैं उसके हवाले

बगैर किसी झिझक के
पूरे इतमीनान के साथ
काश मौत भी
होती हमारे लिए एक नींद!

Sunday 18 July 2010

तस्वीरें


चित्रः मृदुला सिंह
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कभी भी अच्छी नहीं आयी उसकी तस्वीर
ख़ुद फ़ोटोग्राफ़र भी रहते थे हैरान
क्या है ऐसा कि वह दिखता तो ठीक-ठाक है
लेकिन तमाम कोशिशों के बावज़ूद
वे संतुष्ट नहीं हो पाते थे अपनी ही खींची गयी तस्वीरों से
ज़िन्दगी आगे बढ़ती गयी और लेकिन तस्वीरें खिंचती रहीं बेजान, अनाकर्षक, निस्तेज, उदास
नकली भावों वाली
चेहरा लगता था जैसे हो मुखौटा
कई बार तो एक तस्वीर का चेहरा नहीं मिलता था दूसरी तस्वीर से
लोग सहसा नहीं पहचान पाते थे कि किसकी है तस्वीर
उसके घर वाले भी नहीं, बाल-बच्चे, पत्नी, दोस्त
सबको बताना पड़ता
वही है वह जिसकी तस्वीर ली गयी है

अचानक एक दिन
वह नहीं रहा
और बस पीछे रह गयी ढेर सारी तस्वीरें
हैरत की उसके जाते ही आ गयी तस्वीरों में जान

उसकी हर अदा जानी-पहचानी
उसका हंसना, उसकी उदासी सब कुछ तो थी
जैसे एकदम सामने हो वह
बाल-बच्चों ने जब बनवायी उसकी आदमकद तस्वीर
तो एकाएक लोग अचम्भित हो जाते
जैसे वह खड़ा हो सामने सचमुच।
लोग कहते हैं अब वह अपनी तस्वीरों में ज़िन्दा है
क्या किसी के जाने के बाद जान आ जाती है तस्वीरों में!!

साझेदारी


चित्रः मृदुला सिंह
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ताख पर रखी हुई चाभी
बार-बार उकसाती है
कहीं चलूं
और ताले को ज़रा देर सोचने दूं अपने घर के बारे में
इतमीनान से
करके उसी के हवाले

बुरा नहीं है घर की चिन्ताओं में
शामिल कर लेना ताले को
दरवाज़े, खिड़की, अलगनी, आलमारी को भी
मय साजो-सामान

घर
जहां कई-कई लोग
छोटी-मोटी चीज़ों की चिन्ता में
रहते हैं शामिल

कितना सुकूनदायक होता है चिन्ताओं का बंट जाना

बंट जाने से कम हो जाता है बोझ
जैसे बंट गयी हों डाकिये की चिट्ठियां।

हवा में उछलते हुए


चित्रः मृदुला सिंह
-----------






गेंद
उछल रही है
उससे पहले मेरे टखने
एड़ियां
पंजे

गेंद में देख रहे हैं मेरे पैर
अपनी उछाल

मेरे पैर गेंद के अन्दर हैं

पैर को यूं उछलता देख
बेचैन होता है मेरा सिर
देने के लिए-शाबाशी

कोई देख सकता है मुझे यूं
हवा में उछलते हुए।

होने सा होना



चित्रः मृदुला सिंह
--------------





इस-उस से हाथ मिलाते हुए
मैंने महसूस किया है
मेरे हाथों ने खो दी है
अपनी ऊष्मा
अब मेरे हाथों और दस्तानों में कोई फ़र्क नहीं है

किसी और का हाथ हो कि कुर्सी का हत्था
कोई प्रतिक्रिया नहीं होती

मैं अपनी स्मृति को स्मृति, हाथ को हाथ और यात्रा को यात्रा
बने रहने देना चाहता हूं
मैं दरअसल जुड़ना चाहता हूं उससे
जो है, सो हो मेरे लिए भी
अपनी पूरी गरिमा के साथ

मैं चाहता हूं
कर लूं दो-चार-दस दिन लगातार
अपने-आपको एक छोटे से कमरे में कैद
और महसूस करूं उसके चप्पे-चप्पे में बसी तमाम आहटों को
जो किसी चींटी के रेंगने तक की भी हो
उसकी गंध जो सिरके की तरह हो सकती है पुरानी और स्वाद भरी
दीवार में उखड़े हुए चूने को भी बसा लेना चाहता हूं अपनी स्मृतियों में
खूब-खूब पहचान लेना चाहता हूं उनमें बनी आकृतियों को
जैसे पहचानता था बचपन में
जिनसे हल्की सी भी हो छेड़छाड़ तो पता चल जाये फौरन
बस हिलते-डुलते बादलों सा वे न बदलें अपना हाव-भाव

चाहता हूं जान लूं कितनी देर तक हिलते हैं फैन के डैने
बिजली का स्विच आफ होने के बाद

कितनी देर तक हिलती है हवा खुली खिड़की से आती हुई
जब वे सुस्ता रहे होते हैं आदमी को भरी गर्मी
व उमस में देने के बाद राहत
उल्टे लटके-लटके बेताल की तरह
कई बार तो वे लगातार हफ्तों चलते रह जाते हैं
बिना शिकायत
किसी बाल-बच्चे वाले घर में

चाहता हूं पहचान लूं नल से चूते पानी के संगीत को
जिसका बदल जाता है सुर
बर्तन के बदलने के साथ-साथ

चाहता हूं
ठीक से महसूस करना
अपने रोमों पर चादर की छुअन
दुलारना उसके रेशे-रेशे को
जो भर चुके हों मुझे एक सुकून से
जब मैं कर चुका होऊं थक हार कर अपने-आपको
उसके हवाले

मैं चाहता हूं गहरी नींद से सहसा आंख खुलने पर
अंधेरे में भी याद रहे
मैं जालंधर में हूं या इंदौर
अमृतसर में हूं या कोलकाता
किसी ट्रेन की बर्थ पर लेटा हूं या किसी गेस्ट हाउस में

दरअसल में अपने हाथ को किसी हाथ में देने के बाद
महसूस करना चाहता हूं एक थरथरराहट और
एक मासूम सा स्पंदन

यह मेरी ज़िन्दगी के लिए बेहद ज़रूरी है

बेहद ज़रूरी है कि मैं हाथों का इस्तेमाल
अलविदा और स्वागत के लिए हिलाने और मिलाने के पहले
उनके होने को महसूस करूं
हाथ के होने में अपने-आपको शामिल करूं।

Tuesday 13 July 2010

भगवान जी से



चित्रः मृदुला सिंह
---------------------
प्रभु! तुम्हारी छोटी सी मूर्ति के पास
ठीक नीचे रखे हैं झाड़ू और जूते चप्पल
उन्हें तुम इग्नोर करना वह तुम्हारे लिए नहीं हैं
तुमसे अपील है कि तुम अपने काम से काम रखो
और वह जो फूल तुम्हारी मूर्ति के पास रखा है
और जली हैं अगरबत्तियां, जला है एक घी का दिया
बस वही तुम्हारे हैं, उतना ही है तुम्हारा तामझाम, माल असबाब
तुम वहीं तक सीमित रहो, और उतने में ही मगन
यह छोटा सा घर है मेरा, उसी में तुम्हें भी ज़गह दी है यही क्या कम है?
सुबह से सिर पर रहते हैं कई काम, और उसी में इधर मार्निंग वाक भी ज़रूरी हो गया है
थुलथुल होती पत्नी के कारण
सो तुम्हें याद करने के लिए वक्त कम निकलता है
वह भी कभी-कभी
तो भी तुमको एडजेस्ट करके चलना होगा
एक नन्ही सी जान, घर गृहस्थी के हज़ारों काम
उसी में तुम्हें भी शामिल किया है, यही क्या कम है!

इन्तज़ार


उन्नीस साल बाद लौटा था गांव
और इन्तज़ार कर रहा था कुएं पर बैठे-बैठे लौटने वालों का
बच्चों का, जो गये थे स्कूल
बाबूजी का, जो गये थे धान के खेत में
फसल कट रही थी वहां
बाबा का, जो गये थे लालगंज अपनी पेंशन बैंक से उठाने

लोगों को इन्तज़ार था डाकिये का
चाची को फ़ोन कॉल का
बेटा गया है नाएडा रिटेल मार्केटिंग की पढ़ाई करने
मां को इन्तज़ार था काम वाली बाई का जो अब तक नहीं आयी थी
और बर्तन काफी कम मांजे गये थे उसकी आस में

आंगन को इन्तज़ार था धूप के उतरने का
कहीं कोने में लगी लौकी के पौधे को पानी का
जो कई दिन से प्यासा था

मैं जब आया तो मुझे लगा यहां बहुत कुछ था इन्तज़ार में
और मैं उसकी एक कड़ी भर था
पूरे उन्नीस साल मेरे गांव में एक मैं नहीं था इन्तज़ार करने योग्य
और कई थे जो गये थे गांव से अरसा पहले और नहीं लौटे
और लौटे तो वह नहीं थे जिसका हो रहा था इन्तज़ार
वे बदले-बदले थे

मुझे लगा इन्तज़ार एक सामूहिक एक लय है गांव में
और मैं पहुंचते ही चुपके से बन गया उसका एक हिस्सा
मैं कुएं के पास नीम की छांह में बैठे बैठे करने लगा इन्तज़ार
जैसे सब कर रहे थे
क्योंकि यह एक ऐसा काम था जिसे सब कर रहे थे
मैंने नज़र दौड़ाई
नाद अब भी वहीं जहां उन्नीस साल पहले बंधा करते थे
तीन जोड़ी बैल
लेकिन फिलहाल नहीं थे वे अपनी जगह
वे लौटेंगे घंटे दो घंटे बाद खेतों से थकहार कर मैंने अपने को समझाया
जैसे मैं लौटूंगा बीस साल बाद
शहर से
जैसे लौटे हैं चालीस साल बाद मेरे पिता
लेकिन शाम ढल गयी
गांव में बहुत कुछ लौटा
लेकिन नहीं लौटे बैल
मेरी आंखें
रह रह कर उन्हें खोजती रहीं
और फिर अगले तीन दिन भी वे नहीं लौटे जब तक मैं रहा गांव
गांव में किसी भी घर से नहीं सुनायी दी किसी भी बैल के गले में बजती हुई घंटियों की आवाज़े
उनकी ज़गह ले ली थी
ट्रैक्टर ने
मैं शहर लौट गया यह सोचते हुए
खेतों को कितना सालता होगा
बैलों का अभाव
न जाने कितने साल तक बैलों का इन्तज़ार करेंगे खेत।

Friday 9 July 2010

बुढ़ापे में मां-बाबूजी














जैसे कि एक की सांस का होना
दूसरे के लिए बेहद ज़रूरी है

एक जो पहले सोता है
लेता है घर्राटे ज़ोर-ज़ोर से

और दूसरे जागता रहता है
उसके सहारे,
उसकी डोर थामे

उसके लिए
यह सांसों की आवाज़ एक आश्वासन है

जीने की लय

जीने का जरिया और मतलब

जीने की वज़ह

एक का खर्राटा बचाता है दूसरे को अकेला होने से

कभी-कभी लगता है खर्राटे लेने वाला करता रहता है
दूसरे की सांस की रखवाली।

धन्यवाद चीटियो धन्यवाद!!

कई दिनों बाद यकायक मुझे पता चला
मेरे लिखे पर बहुत बड़ी दावेदारी उन चीटियों की है
जो आराम से रह रही थी मेरे कम्प्यूटर के की-बोर्ड में
और मैं नज़र गड़ाये रहता था उनकी कारगुज़ारियों से बेपरवाह
कम्प्यूटर के स्क्रीन पर
जबकि में लिख रहा था दुनिया जहान पर
इस तरह जैसे कि मैं अकेला और केवल मैं ही सोच
रहा था तमाम गंभीर मसलों पर
और जैसे कि मेरा सोचना ही हल कर देगा मसलों को
और उन्हें लिख देना कोई बहुत बड़ी कारर्वाई हो अमल से मिलती जुलती या फिर उससे भी अहम
सहसा मुझे दिख गयी चींटी
और फिर मैंने उत्स जानना चाहा
आखिर कहां से आ गयी चींटी कम्प्यूटर के स्क्रीन पर
कहीं तो होगा उनका कुनबा
मैंने अनुभव से जाना है
कभी एकेली नहीं होती चींटी
आदमी के अकेलापन को मुंह चिढ़ाती हुई
चींटी का चेहरा हमारे पूर्वजों से कितना मेल खाता है आज भी

मैंने खोज डाला टेबिल जिस पर था कम्प्यूटर नहीं मिली वैसी ही कोई दूसरी चींटी
जैसी एक थी
हां वैसी ही
न जाने क्यों मुझे हर चींटी एक जैसी ही लगती है
सौ चीटियां में हर एक लगती है एकदम दूसरे जैसी
जैसे पेड़ की एक पत्ती का चेहरा मिलता है दूसरे से
आदमी का भी मिलता होगा कभी
फिलहाल तो नहीं
और खोज के उपक्रम में नज़र गयी की बोर्ड पर
ब्लैक की बोर्ड पर लाल-लाल छोटी चींटियां
न जाने कब से बना रखा था उन्होंने की बोर्ड को अपना ठिकाना
मैंने बहुत सोचा आखि़र क्या कर रही थीं वे की बोर्ड में
जबकि बाहर बेहद गर्मी पड़ रही थी क्या उन्हें यहां मिल रही थीं ठंडक
जो कम्प्यूटर में टाइप होते हुए अक्षरों से पहुंच रही थी उन तक
क्या उन्हें भली लग रही थी वह थरथराहट और वह लय और ताल
जो आदमी को आदमी से जोड़ने वाले शब्दों के ढाले जाने के उपक्रम में पैदा होती है
क्या उन्हें भली लग रहा थी उन उंगलियों की बेचैनी जो
शब्द में जान पैदा करने की कोशिश में उठती हैं
या वे लिख रही थी संवेदना के इतिहास में अपना योगदान
मेरे की बोर्डे से मेरे शब्दों की फांक में
या फिर मैंने नहीं स्वयं उन्होंने लिखवाई हो वह तमाम इबारतें
जिनके बारे में मैं सोच रहा था निकल रही हैं मेरे मन के किसी तहखाने से
क्या आदमी के काम में चीटिंयों ने हाथ बंटाने की ठान ली थी
मेरे हाथ, मेरी उंगलियों और पूरी मनुष्य जाति की ओर से
धन्यवाद! चीटियो धन्यवाद!!

Monday 5 July 2010

रेत की सवारी

दीघा में समुद्रतट की गीली रेत पर शाम को चलते हुए
अचानक दीख गया एक किशोर
साइकिल पर चलते हुए
जबकि लोग लुत्फ ले रहे थे घुड़सवारी का

मैंने किशोर से कुछ देर के लिए साइकिल ली
किराये पर
और साइकिल पर सवार हो चलने लगा रेत पर
मुझे एकाएक लगा
मैं साइकिल नहीं
रेत पर सवार हूं
यह सवारी मुझे विस्मयकारी लगी

मैं रेत पर सवार था
और दौड़ रहा था
दिगंत के किनारे-किनारे
वह दिगंत
जहां समुद्र का असीम जल
एकाकार हो गया था आकाश से
समुद्र जल में
डूबते सूर्य की परछाही के कारण
यह पता लगाना मुश्किल था कि सूर्य डूब रहा है
या उग रहा है
पता नहीं वह आकाश से समुद्र में डूब रहा है
या समुद्र से आकाश में
उग रहा है
जबकि पर्यटक सूर्य व समुद्र की विस्मयकारी रोशनी का ले रहे थे आनंद
मैं रेत पर सवारी का आनंद लेने में डूबा रहा
और मुझे मिल गयी यात्राओं की
एक नयी कुंजी

बरसों बीते
मैं कभी पतंग पर सवार हो उड़ता हूं हवा में
झूला झूलने लगता हूं
किसी नीम की फुनगी पर बैठ गौरेया के पंख पर

विश्वास कीजिए
मैं चोट से कराह हुआ
जब एक टिकोरे के साथ ऊंची टहनी पर दुबक कर बैठा था कड़ी धूप में
और तेज़ हवा के झोंके से
गिरा ज़मीन पर-धड़ाम
उस दिन चीखा था ‘बचाओ-बचाओ’
जब एक कागज़ की डोंगी में बैठा यात्रा कर रहा था चींटियों के साथ
जो पानी की तेज लहर से अचानक उलट गयी।

अकेले आदमी का बोलना

एक बेहद अकेला आदमी
जब कभी, जहां कभी बोलता है
उसकी बातों में होती हैं
कई-कई आवाज़ें
कई-कई ध्वनियां
कई-कई अर्थ
कई-कई चुप्पियां
कई अनुगूंजें
थान की थान
तहियायी हुई
उसकी बातों में
होती है एक संवादरहित ठंडक
जब कभी एक बेहद अकेला आदमी बोलता है

जब वह बोलता है
दरअसल कर रहा होता है एकालाप
लड़ रहा होता है
ख़ुद के ही सवालों से
अपनी चुप्पियों से
अपनी ही आवाज़ के ज़रिये

एक अकेला आदमी
जब कभी बोलता है
बहुत कुछ तोड़ता है
और सबसे अधिक अपने-आपको

वह बोलता चला जाता है
मिनट दर मिनट
घण्टा दर घण्टा
जैसे वह बोलते रहना चाहता हो
सदी दर सदी
इसीलिए बहुत ख़तरनाक़ होता है
अकेले आदमी का बोलना
क्योंकि
उसका बोलना भी
दरअसल उसकी चुप्पी ही है...।

Friday 2 July 2010

समाहित कर देना अपने-आपको

सुनता हूं कि मैं अबके निकाला गया तो हाऊंगा पृथ्वी लोक के बाहर
भेज दिया जाऊंगा किसी और लोक में
जहां बहुत कुछ होगा
शायद हों कई जाने-पहचाने चेहरे
समय की गर्द में समाये हुए
मैं उस लोक की तैयारियों में लगा हूं
सोचता हूं क्या-क्या ले चलूं वहां
वहां ले जाने की क्या हो सकती है संभावित विधियां
लेकिन ले जाने की कोशिश क्यों और क्यों की जाये
जबकि हम ख़ुद को ही नहीं ले जा सकते ठीक-ठाक उस रूप में
जिस रूप में हैं हम अभी

मैं सोचता हूं
क्या मुझे पहचान लिया जायेगा आसानी से
जो मैं हूं उसे भी
यदि यह नहीं हुआ तो मेरे अपने मुझे वहां पहचानेंगे कैसे

यह पहचान का संकट कब दूर होगा
कभी होगा भी या नहीं
जो अरसे बाद भी बना हुआ है इस पृथ्वी लोक में भी
क्या हम किसी एक लोक में महज़ इसलिए तो नहीं आते कि बना पायें अपनी पहचान
और फिर चल दें दूसरे लोक में इसी काम पर

यहां, इस पृथ्वी लोक में क्या पहचान लिया गया है मुझे
मैं हूं जिनका बेहद अपना क्या वे इसे मान पाते हैं कि
मुझे हो सकता है उनसे किसी तरह का कोई गहरा ताल्लुक
मैं जिनका होने की कोशिश में रहा ता-उम्र
वे देखते हैं गहरे संशय से मुझे
क्या किसी का होना होता है इतना कठिन
कि यह अजूबा लगे
क्या यह अविश्वसनीय क्रिया है किसी में समाहित कर देना अपने-आपको।

खोई हुई दुनिया में











जो छूट गया है उसका क्या करूं
कहीं छूट गई हैं
बहुत सारी चीजें
बहुत सारी बातें-अनकही
बहुत सारे सवालों के जवाब
जिसमें था एक
बेहद नाजुक-सा

मैं छोड़ना चाहता हूं अपनी समस्त कामनाएं
एक छोटी-सी
हां के लिए

उससे पहले मैं चाहता हूं दुनिया की पूरी ताकत
यदि वह हां न मिले
मैं आगे निकल आया
पता नहीं क्यों?
अभी भी ठीक-ठीक पता नहीं है इस क्यों का

हम आखिरकार क्यों हैं विवश
पीछे बहुत कुछ छोड़ आने को
जिन्हें हमने अर्जित किया है अपने को खोकर?

दरअसल हमें अर्जित करना है
खोना
जिसे हमें
अपने पाने से बदलना है

छूट गई है पीछे एक गंध
जो पीछा करती है सपनों में
एक शाख
जो रह -रह कर झांकती थी खिड़की से
छूट गई है एक अधूरी प्रार्थना
जो शायद याचना से मेल खा सकती थी

सबसे पहले वह बस छूटी अलसुबह
मेरे गांव के पास के कस्बे से
जिस पर मैं सवार था
फिर छूटने का सिलसिला जुड़ गया
कितना विस्मय है कि होता हूं अक्सरहा अपनी छूटी हुई दुनिया में


क्या मुझे यह दुनिया हासिल करने के लिए

जाना होगा एक और दुनिया में
क्या छोड़े बगैर नहीं पाया जा सकता कुछ भी

क्यों है मेरी शिनाख्त मेरे छोड़े हुए से ही

क्या मेरी उपलब्धियां हैं
मेरा हासिल नहीं
मेरा खोना

यह कैसी रवायत है
कि रहना होता है
अपनी खोई हुई दुनिया में ?

निहितार्थ के लिए

मैंने सम्पादक से कहा
यह कविता नहीं आंदोलन है
जवाब मिला-इसे किसी संगठन के हवाले कर दो
उसे इसकी यादा ज़रूरत होगी
क़िताबों के ताबूत में दफ़न नहीं होनी चाहिए क्रांतियां
उसे चाहिए आम जनता की शिरकत

मैंने संगठनों से कहा
यह लो भई
यह आंदोलन नहीं आग है
दहकते हुए अंगारे
चिंगारी से बढ़कर

तब तक संगठन एनजीओ की शक्ल ले चुके थे
खैर तो यह हुई कि उन्होंने मुझे भठियारों के पास भेज दिया
कहा वहीं है आग का असली कद्रदान
वह कर पायेगा आंच व तपिश का
एकदम सही इस्तेमाल

मैंने वैसा ही किया
भठियारे से कहा
यह आग नहीं कोयला भी है
बल्कि तुम्हारे लिए तो कोयला ही
जब-जब चाहोगे इसकी मदद से
लाल दहकते अंगार से भर उठेगी तुम्हारी भट्ठी
इसका कोयला कायम रहेगा जलने के बाद भी
कई-कई सदियों तक
पुश्त दर पुश्त
कोयले की यह असीम विरासत तुम सम्भालो

उसने कहा
ले जाओ इसे किसी गांव की गृहीणी के पास
वहां इसकी सख़्त ज़रूरत है
वहां नहीं है ईंधन
जलावन नहीं बचे अब गांव में
बोरसियां तक ठंडी पड़ी हैं
कोयला तो गांव तक पहुंचता ही नहीं

मैं खुश था
मिला गया था मुझे सही ठौर
मैं गांव-गांव घर-घर घूमा
मैंने गृहीणियों से कहा
इसे रखो सहेज कर
यह ईंधन भर नहीं है
कि झोंक दो चूल्हे में
ताप जाओ किसी ठंडी रात में जला एक अलाव की तरह
यह और भी बहुत कुछ

इसका स्वाद तुम्हारी रोटियों में पहुंच जायेगा
दौड़ने लगेगा
तुम्हारी धमनियों में
तुम्हारे रोम-रोम में समा जायेगा

रफ्ता-रफ्ता यह ईंधन ज़रूरी हो जायेगा तुम्हारी सांसों के लिए
यह कविता की तरह है
बल्कि यह कविता ही है
उत्फुल्ल होते लोग सहसा उदास हो गये
उन्होंने मुझे लौटा दिया एक और पता दे
यह सम्पादक का था
अब मैं कहां जाऊं..