Friday 30 July 2010

मेरे लिए कविताः वक्तव्य

॥ एक॥
मेरी किसी भी काव्यकृति में कविता पर मेरा वक्तव्य नहीं है। हालांकि इसके औचित्य के बारे में कभी गंभीरता से मैंने सोचा नहीं है। फिर भी मन है कि अपनी रचनाशीलता पर भी कुछ कहूं। क्या होती है कविता-यह मेरा अविष्कृत नहीं है, इसे परम्परा से ही प्राप्त किया है। अपनी किन्हीं शर्तों पर शायद अन्ततः नहीं बल्कि अपनी सीमाओं में। लिखना शुरू कर दिया था विधिवत बचपन में ही। जब मैं आठवीं कक्षा में पढ़ाता था मेरी पहली कविता छपी थी लेकिन भले बुरे की जो भी समझ विकसित हुई 1989 के बाद ही जब मैं कोलकाता आया और लगभग यहीं का होकर रह गया। इसके पहले का लेखन अभ्यास भर मान पाता हूं। पहली कविता लिखी थी प्रेम पत्र में। वह प्रेम पता नहीं कहां कब छूट गया, था भी या नहीं लेकिन कविता अब भी है आस-पास। नहीं भी हो तो भ्रम अवश्य है कि कविता से मेरा सरोकार है। कविता मैं क्यों लिखना चाहता हूं-बचना चाहते हुए भी?क्या पता। लिखने से बचना चाहता हूं-निछाह जीवन में उतरने के लिए, ताकि जी रहा होऊं तो कहीं भरपूर जीने से थोड़ा बचाकर उस जी रहे होने को स्मृति कोष में भरने की विवशता न रहे। सीधे निछक जीवन को पा लूं लेकिन नहीं। जहां जीने लायक कुछ नहीं लगता वहां एक आधार मिलता है कविता का कि इस स्थिति का रचनानुवाद उस अनुभव को लगभग प्रायोगिक या ऐच्छिक घटना क्रम में बदल देता है। और उन एकान्त क्षणों में जब मेरी विवशता मेरी रचनास्पद स्थितियों को समझने जानने वाला कोई नहीं होता-कविता को स्थानांतरित कर देता हूं।
कभी-कभी मुझे यह भी लगता है जैसे कविता कर्म मुझे अन्दर ही अन्दर संघर्षशील और यातनास्पद बनाने में जुटा हुआ है पता नहीं यह मेरे हित में किस प्रकार है। और जब भी अपने संघर्षों को लिपिबध्द करने बैठता हूं आत्मनिर्वासन पा जाता हूं। सार्वजनीन होने की कौन सी विवशता है? आत्मछल तो नहीं यह आत्मनिषेध। मैं चाहता हूं प्रत्येक कविता में भरसक मैं कहीं न कहीं होऊं। इस तरह की वह मेरी ही हो पाये। कविता मेरा मोनोग्राफ हो। अपने सामान्य अनुभवों के विशिष्ट आस्वादों पर लिखने की कोशिश मेरी रही है और मेरी संवदेनशीलता मुझे मेरे रचनाकर्म में बहुत काम आती है। ठीक वैसे ही जैसे मेरा क्रोध। विवेक सम्मत क्रोध की अभिव्यक्ति भले ही पिछड़े साहित्य की श्रेणी में आये मगर वह जितना, जहां भी आ पाया है वह मेरे लिए विशेष संतोष का है। और जहां क्रोध नहीं दीख पड़ेगा वहां क्रोध से अधिक कुछ है जो कातरता में बदल गया हो शायद। मुझे लगता है कि साहित्य में क्रोध का आशय बदलाव और विरोध का मुखर और तीव्रतम स्वर है। तिरस्कार और व्यंग्य भी मुझे कम महत्व के नहीं लगते। खास कर निहत्थे आदमी के पास अगर हो कविता तो। सन्त मुद्रा की कविता मेरे लिए कठिन है जहां आवेगों के लिए हिकारत हो। कविता के लिए विचार मुझे आवश्यक लगता है मगर खलिस विचार को कविता नहीं मान पाता। कविता में भावुकता दिखनी चाहिए और विचार केवल उसे संचालित, संयमित या दिशा-निर्देश देने वाला तत्व भर हो। कविता के लिए भावुकता को मैं विचार से कम मूल्यवान नहीं मान पाता हूं।
॥दो॥
-मैं इस सवाल को अपनी सुविधानुसार बदलना चांगा। मैं चाहता हूं कि यह टटोलने की कोशिश करूं कविता भी क्यों? जब अभिव्यक्ति के तमाम उपकरण मौजूद हों ऐसे में कविता की आवश्यकता आखिर क्योंकर है?क्या और आखिरकार कविता में क्या है ऐसा जो हो सकता है केवल कविता में?कोई नहीं ले सकता जगह इस विधा की। आखिर क्या होता है कविता में कि वह जीवन में आती है तो जीवन की चाल बदल जाती है। बदल जाते हैं जीवन के आशय। क्यों माना था धूमिल ने कविता आदमी के होने तमीज है। क्या कविता आदमी को अधिक आदमी बनाती है। क्या होता है कविता में वह जब टपकती है किसी की बातों से तो शब्द हमारी रूह को भी छूने लगते हैं। क्या है कविता में कि वह शब्दों से ले जाती है हमें परे। वह क्या है जो विचारों को कई बार कर देती है बौना। रह जाते हैं सारे के सारे तर्क निरर्थक। क्या है कविता में जो मिल जाती है भाषण में तो चमक जाता है नेताओं का वक्तव्य। क्या है कि वह कि बाजार में नहीं बिकती पर मजबूर रहते है उत्पादों के विज्ञापन उसी पर आश्रित। क्या है कविता में कि वह कभी नहीं पडती पुरानी। मैं मानता हूं कि मैंने पहली बार अनजाने में ही अपने पहले प्रेमपत्र में कविताएं लिखी थी। और फिर मांने मुझे उपन्यास लिखते हुए देखा तो डर गई कि यह अब पढाई नहीं कर सकेता तो लेखन पर प्रतिबंध लगा दिया। और अपनी बात को संक्षेप में, कम समय में लिखकर उसे आसानी से छिपा लेने की गरज से कविता लिखनी शुरू की थी। पर अब मां का डर नहीं है फिर भी मैं क्यों लिखता हूं कविताएं मुझे आपने फिर से सोचने पर विवश कर दिया है।
मुझे दूसरी विधाओं में लिखने में कोई दिक्कत नहीं फिर भी कुछ चीजें मुझे लगता है कि केवल कविता में ही संभव है। मैं अपने अनुभव के बारे में तो यही कहना चांगा कि कविता लिखने का अनुभव किसी दूसरी दुनिया के साथ अपने को जोडने का अनुभव है। जैसे कोई और होता है जो हमसे लिखवाता है। जिसे लिखने के वक्त और कई बार लिखे जाने के बाद ही पता चल पाता है कि हमने क्या लिखा है। पहले मैंने प्रयास से कविताएं लिखी थी उनका अनुभव तो गद्य लेखन सा ही है अपनी सुविचारित सोच को शब्द देने की। कहानी मैं तो मैं पहले तय कर लेता ं कि मुझे क्या करना है। भले लिखते वक्त पात्र और परिस्थितियां फिर मेरी लेखनी पर कब्जा कर लेते हैं मगर कविता में पहला संकेत तक मेरा नहीं होता। इसलिए कविता मुझे ज्यादा भरोसे की लगती है। मैं अपनी कविता पर अधिक यकीन करता हूं। कविता में अगर कोई लेखक मक्कारी करता है तो वह पकडी भी जा सकती है। कहानी और लेख लिखने के बाद मुझे लगता है कि एक बोझ था मन पर जो निकला गया। यह विधाएं बोझ कम करने का अनुभव देती हैं। मगर कविता। उसके लिखने के बाद लगता है कि हमें किसी परी ने अपने पंख दिए हों उधार कि जाओ उड लो थोडा तुम भी। कई बार अदृश्य और कई बार बेहद परिचित पर अपनी ही खोई हुई दुनिया, यादों, घटनाओं और भूले बिसरे शब्दों की यात्रा का आनंद देती है कविता रचने के बाद की अनुभूति। कई बार तो पूरी देह रोमांचित और झंकृत हो उठती है। कविता की रचना मेरे लिए जोखिम भरी भी है, क्योंकि मैं कब कवि नहीं रह जाऊंगा नहीं जानता। मैंने कई बार टटोला है कि क्या मेरे अंदर कोई कवि है। तो निराशा हाथ लगती है। पर वह एकबारगी मुझे हैरत में डाल देता है अपनी रचनाओं से। और सच कं तो कई बार वह इतने बदले तेवर में होता है कि लगता है कि यह पहले वाला कवि नहीं है यह तो कोई और है। मैं अपनी कविताओं के बदले हुए तेवर का साक्ष्य भर होता हूं। इसलिए कुछ नहीं कर सकता। लोग कहते हैं कि तुम्हारी कविता का स्वर बदला बदला है तो भी मेरे पास कोई स्पष्टीकरण नहीं होता। कोई तर्क नहीं होता।
॥तीन॥
कविता का सबसे अधिक सरोकार अगर किसी से है तो वह आज़ादी ही है। आज़ादी को सबसे पहली बार शायद कविता ने ही परिभाषित किया होगा क्योंकि स्वप्नों की भाषा या कहें मातृभाषा कविता ही है। स्वप्न हमारी आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति न सिर्फ़ सुगमता से कर लेते हैं बल्कि उसके लिए उन्हें किसी तारतम्य की आवश्यकता नहीं होती। स्वप्न अपने साकार होने के मार्ग तलाश नहीं करते बल्कि वे उसकी इच्छा जगाते हैं। कविता चूंकि ऐसी विधा है जिसमें न तो कार्य-कारण के सम्बंध को स्थापित करने की विवशता होती है और ना ही उन युक्तियों को गढ़ने की कि किस प्रकार स्वप्न यथार्थ का रूप ले सकते हैं। आज़ादी का जो भी ख़याल आया होगा उसकी पहली अभिव्यक्ति कविता में ही हुई होगी और इसलिए क्रांतिकारियों की कविताएं हमेशा रिझाती रही है। कई बार तो ऐसा लगता है कि जो ख़्वाब नहीं देखता, जो कविता को नहीं चाहता वह क्रांतिकारी हो ही नहीं सकता।
देश की आज़ादी को कविताओं ने अपने स्वप्नों से सींचा और उस लक्ष्य की प्राप्ति की विकलता को भी बढ़ाया, संघर्ष को भी नयी चमक दी किन्तु कविता ने कभी भी आज़ादी को ही लक्ष्य नहीं बनाया वह देश के लोगों को एक साधन की तरह चाहिए थी, क्योंकि जो आज़ाद नहीं होगा वह मनुष्यता की बेहतरी के लिए कुछ कर ही नहीं सकता। भले ही राजनीति ने आज़ादी का इस्तेमाल अपने लक्ष्य के रूप में किया और सत्ता हस्तांतरण के बाद वह संतुष्ट हो गयी। हालांकि कविता के लिए आज़ादी माध्यम ही थी और रहेगी। उसे आज़ाद मनुष्य इसलिए नहीं चाहिए कि वह दूसरों के शोषण के नये औज़ार बनाये। दूसरों को अपने विकास की सीढ़ी तरह इस्तेमाल करे। कविता के लिए आज़ादी का औचित्य सबके लिए अमन-चैन और शोषणहीन समाज की स्थापना है।
भारत के मौज़ूदा परिप्रेक्ष्य में हम देखें तो पायेंगे कि कविता के साथ विश्वासघात हुआ है। आज़ादी का दोहन हो रहा है। वह कुछ लोगों के लिए असीमित आज़ादी का तोहफ़ा लेकर आयी है। ये आज़ाद लोग कई बार उन लोगों से भी अधिक ख़तरनाक़ हैं जो हमें गुलाम बनाये हुए थे। दूसरों ने हमारा उतना अहित नहीं किया जितना वे कर रहे हैं। आज़ादी के बाद कविता ने मोहभंग झेला। कविता का बड़ा स्वप्न आज़ादी उसे खुशहाली और संतोष देने के बदले सदमे दिये। नयी स्थिति ने उसे किसी हद तक उद्देश्यहीनता क स्थिति में ला खड़ा किया किन्तु जल्द ही उसने अपने औचित्य का एहसास करा दिया। अपने ही कद्दारों की कलई खोलनी शुरू की। अपनी आस्तीनों की हक़ीक़त बयान की किन्तु अब भूमंडलीकरण और उदार बाज़ार व्यवस्था ने शोषण का इतना महीन जाल बुना है कि देश की आम जनता को उसका भान तक नहीं हो पा रहा है। अब इस बाज़ार को सबसे बड़ा ख़तरा कविता से है और कविता को बाज़ार से। बाज़ार ने कविता का स्थान छीनने की कोशिश शुरू कर दी है। सबके सपनों, आशाओं, आकांक्षाओं पर बाज़ार धीमें-धीमें अपना प्रभाव छोड़ रही है। नयी आकांक्षाओं, नयी दुनिया, नये लोगों के जन्म का जो रूपाकार कविता गढ़ती है वह बाज़ार कर रहा है। बाज़ार विभिन्न माध्यमों से ऐसा आदमी, ऐसी रुचियां, ऐसे सपने परोस रहा है जिसका विस्तार बाज़ार के उत्पादों का विस्तार करेगा।
आज़ादी के बाद कविता अपना स्थान खो रही है। कविता के सारे कोमल, चमकदार, संवेदनशील तत्त्व विज्ञापन लील चुके हैं। इससे पहले कि बाज़ार कविता को भी अपने ढंग से संचालित करने की कोशिश करे कविता को अपना संघर्ष तेज़ करना होगा। स्वप्न की अभिव्यक्ति कविता में होना जहां मनुष्यता के लिए शुभ संकेत है वहीं बाज़ार की लक्षित अभिलाषाओं के रूप में हुई तो यह बेहद ख़तरनाक़ मामला है। परोक्ष रूप से वही हो रहा है क्योंकि नयी पीढ़ी के स्वप्नों को दिशा बाज़ार दे रहा है। बाज़ार जो कुछ अभिव्यक्त कर रहा है वही आकांक्षा के रूप में हमारे स्वप्नों और चाहतों में पैठ रहा है। उपभोग की नयी वस्तुओं की प्रमुख कामना आम जनता की प्रमुख कामना हो जाये तो इससे बढ़कर समाज की क्या विडम्बना हो सकती है।

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