Sunday 18 July 2010

होने सा होना



चित्रः मृदुला सिंह
--------------





इस-उस से हाथ मिलाते हुए
मैंने महसूस किया है
मेरे हाथों ने खो दी है
अपनी ऊष्मा
अब मेरे हाथों और दस्तानों में कोई फ़र्क नहीं है

किसी और का हाथ हो कि कुर्सी का हत्था
कोई प्रतिक्रिया नहीं होती

मैं अपनी स्मृति को स्मृति, हाथ को हाथ और यात्रा को यात्रा
बने रहने देना चाहता हूं
मैं दरअसल जुड़ना चाहता हूं उससे
जो है, सो हो मेरे लिए भी
अपनी पूरी गरिमा के साथ

मैं चाहता हूं
कर लूं दो-चार-दस दिन लगातार
अपने-आपको एक छोटे से कमरे में कैद
और महसूस करूं उसके चप्पे-चप्पे में बसी तमाम आहटों को
जो किसी चींटी के रेंगने तक की भी हो
उसकी गंध जो सिरके की तरह हो सकती है पुरानी और स्वाद भरी
दीवार में उखड़े हुए चूने को भी बसा लेना चाहता हूं अपनी स्मृतियों में
खूब-खूब पहचान लेना चाहता हूं उनमें बनी आकृतियों को
जैसे पहचानता था बचपन में
जिनसे हल्की सी भी हो छेड़छाड़ तो पता चल जाये फौरन
बस हिलते-डुलते बादलों सा वे न बदलें अपना हाव-भाव

चाहता हूं जान लूं कितनी देर तक हिलते हैं फैन के डैने
बिजली का स्विच आफ होने के बाद

कितनी देर तक हिलती है हवा खुली खिड़की से आती हुई
जब वे सुस्ता रहे होते हैं आदमी को भरी गर्मी
व उमस में देने के बाद राहत
उल्टे लटके-लटके बेताल की तरह
कई बार तो वे लगातार हफ्तों चलते रह जाते हैं
बिना शिकायत
किसी बाल-बच्चे वाले घर में

चाहता हूं पहचान लूं नल से चूते पानी के संगीत को
जिसका बदल जाता है सुर
बर्तन के बदलने के साथ-साथ

चाहता हूं
ठीक से महसूस करना
अपने रोमों पर चादर की छुअन
दुलारना उसके रेशे-रेशे को
जो भर चुके हों मुझे एक सुकून से
जब मैं कर चुका होऊं थक हार कर अपने-आपको
उसके हवाले

मैं चाहता हूं गहरी नींद से सहसा आंख खुलने पर
अंधेरे में भी याद रहे
मैं जालंधर में हूं या इंदौर
अमृतसर में हूं या कोलकाता
किसी ट्रेन की बर्थ पर लेटा हूं या किसी गेस्ट हाउस में

दरअसल में अपने हाथ को किसी हाथ में देने के बाद
महसूस करना चाहता हूं एक थरथरराहट और
एक मासूम सा स्पंदन

यह मेरी ज़िन्दगी के लिए बेहद ज़रूरी है

बेहद ज़रूरी है कि मैं हाथों का इस्तेमाल
अलविदा और स्वागत के लिए हिलाने और मिलाने के पहले
उनके होने को महसूस करूं
हाथ के होने में अपने-आपको शामिल करूं।

No comments:

Post a Comment