Thursday 29 July 2010

दंगे के बाद

इस बिला गये आदमी की
हो रही है शिनाख़्त
शिनाख़्त दंगे के बाद

दंगे के बाद
अपनी पूरी खूराक़ पाता है गिध्द
उससे अधिक वह आंख
जो आदमी को बांट देती है
गिध्द से पहले ही टुकड़ों में
टुकड़े उनके नुकीले संतोष में शामिल हो जाते हैं

दंगे के बाद मोहल्ले
गर्भपात के बाद औरत की उदासी होते हैं
ऐसा नहीं कहूंगा
यह कविता के ख़तरनाक़ कसीदे के
मुलायम आस्वाद का मामला नहीं है

दंगा शब्दों के रद्द हो जाने की
एक प्रक्रिया है
जो शब्दों की ग़लतबयानी का प्रतिफलन है
दंगा एक निशानेबाज़ शिकारी का
मचान से गिर जाने का दुःख है

दंगे के बाद
बचा हुआ आदमी
अपने भीतर मरता है
कसाई देखता है हिकारत से अपने हथियार को
गौर से बकरियों को
सोचता है कितना फ़र्क है
आदमी और बकरी में

दंगे के बाद आदमी ध्यान से पढ़ता है
नाम और सोचता है गंभीरता से नामों के बारे में
डर जाता है सोचकर कि
जानते हैं लोगबाग उसका नाम।

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