इस बिला गये आदमी की
हो रही है शिनाख़्त
शिनाख़्त दंगे के बाद
दंगे के बाद
अपनी पूरी खूराक़ पाता है गिध्द
उससे अधिक वह आंख
जो आदमी को बांट देती है
गिध्द से पहले ही टुकड़ों में
टुकड़े उनके नुकीले संतोष में शामिल हो जाते हैं
दंगे के बाद मोहल्ले
गर्भपात के बाद औरत की उदासी होते हैं
ऐसा नहीं कहूंगा
यह कविता के ख़तरनाक़ कसीदे के
मुलायम आस्वाद का मामला नहीं है
दंगा शब्दों के रद्द हो जाने की
एक प्रक्रिया है
जो शब्दों की ग़लतबयानी का प्रतिफलन है
दंगा एक निशानेबाज़ शिकारी का
मचान से गिर जाने का दुःख है
दंगे के बाद
बचा हुआ आदमी
अपने भीतर मरता है
कसाई देखता है हिकारत से अपने हथियार को
गौर से बकरियों को
सोचता है कितना फ़र्क है
आदमी और बकरी में
दंगे के बाद आदमी ध्यान से पढ़ता है
नाम और सोचता है गंभीरता से नामों के बारे में
डर जाता है सोचकर कि
जानते हैं लोगबाग उसका नाम।
Thursday 29 July 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment