Wednesday 30 June 2010

ख़त

बहुत दिनों बाद एक भूले हुए एक दोस्त का ख़त मिला
मैं अरसे तक उसे जेब में लिए घूमता रहा
सोचता रहा कि कल
बस कल ही लिख दूंगा उसका
कोई प्यारा सा एक जवाब
फिर मैं बार-बार भूलता रह और इस काम को
याद करता रहा

एक दिन आखिर निकाल हीं लिया समय और
लिख डाला ख़त
खत के जवाब में ज्यादा यह लिखा कि क्यों और
आखिर क्यों देर हुई खत के जवाब में
फिर मैं ने उसे सहेज कर रखा अपनी जेब में
कि उसे कल सुबह ही सबसे पहले कर दूंगा पोस्ट
और फिर अरसे तक मैं उस खत को नहीं भेज सका

फिर देर होती गई और यह लगा कि
बेकार और बेमानी है इतने दिनों बाद किसी ख़त
का जवाब देना
कितने दिन बाद यह जोडने की जहमत भी नहीं उठाते बनी
अब बरसों बाद मेरे जेहन में टंगा है वह अनभेजा
ख़त
क्या करूं उस जवाब का जो मैंने
ख़त में लिखा था
और पता नहीं क्यों नहीं मिल सका मेरे दोस्त को
मेरे चाहने के बावजूद.

खुशी

मैं दरअसल खुश होना चाहता हूं

मैं तमाम रात और दिन
सुबह और शाम
इसी कोशिश में लगा रहा ता-उम्र
कि मैं हो जाऊं खुश
जिसके बारे में मैं कुछ नहीं जानता

नहीं जानता कि ठीक किस
..किस बिन्दु पर पहुंचना होता है आदमी का खुश होना
कितना फ़र्क होता है दुःख और खुशी में
कि खुशी आदमी को किस अक्षांश और शर्तों और
कितनी जुगत के बाद मिलती है

वह ठहरती है कितनी देर
क्या उतनी जितनी ठहरती है ओस की बूंद हरी
घासों पर

या उतनी जितनी फूटे हुए अंडों के बीच चूजे
हालांकि वह समय निकल चुका है विचार करने का
कि क्या नहीं रहा जा सकता खुशी के बगैर
तो फिर आखिर में इतने दिन कैसे रहा बगैर खुशी के

शायद खुशी की तलाश में जी जाता है आदमी
पूरी-पूरी उम्र

और यह सोचकर भी खुश नहीं होता
जबकि उसे होना चाहिए
कि वह तमाम उम्र
खुशी के बारे में सोचता
और जीता रहा
उसकी कभी न ख़त्म होने वाली तलाश में.

Tuesday 29 June 2010

हंसी की तासीर


रेखांकनःमृदुला सिंह
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तुम जानो, बहुत दिनों से नहीं हू मैं-अर्थ
तुम मानो, बहुत दिनों से नहीं हूं-प्यास
तुम हंसो, बहुत दिनों से हूं मैं-थिर

॥क॥
मैं झुक गया हूं, जहां मैं चल रहा था वहीं।
उसी रास्ते के आगे। मैं रास्ते के आगे प्रार्थनारत हूं।
क्यों;मैं चूका, कहां-यह मत खोजो।
मैं चूक गया था रास्ते से दहलकर।
है भी विकराल।
रास्ते से मुक्त करो छूकर मुझे।
आओ। तुम जानो, बहुत दिनों से नहीं हूं-अर्थ।
मुझमें भरो थोड़ा सा।
बाकी तो भरेगा ही स्वयं, अगर वह सचमुच में हुआ अर्थ।
नहीं भी भर सका, हो ही जायेगा किसी न किसी के लिए रत्ती भर अर्थ।

॥ख॥
मैं गले तक क्यों हूं भरा।
भरा भी हूं या हूं इकहरा।
प्यास ठुनके भौहों पर-अधरों में
आंखों में, हाथों में जगे, मगर लुप्त।
भीतर कुछ क्या हुआ?
प्यास का मर जाना होता नहीम किसी भी भांति।
हुआ है तो कहां जाकर सोई है प्यास की बच्ची।
कान खींचकर लाओ कोई।
दिन चढ़े तक सोना ठीक होता नहीं
प्यास ही सोई रही तो जगेगा क्या?
ओ प्यास, मुझे पी। मुझे लग। प्यास री।
कस के लग। लग मुझे।

॥ग॥
हंसो। सहसा। मुझे पर नहीं-में।
थिर है कहीं कुछ-क्या पता प्राण ही न हो मेरा।
प्राण न भी हो थिर, प्रयत्न तो हुआ ही हुआ है।
उसे झिंझोड़ो। हालांकि हंस के झिंझोड़ना होता नहीं किसी से।
तो फिर हंस के कुछ और करो। क्या चौंकाओगी?
अच्छा चलो बजा दो।
हंस के बजा सकती हो-थिर हवा, थिर नदी, मौन अन्ततः
प्रार्थना हो सकती है पराजित हंसी से
बढ़ सकती है प्रार्थना से हंसी की तासीर।

हंस दो मुझमें।

बहुत दिनों में हो जाऊं-अर्थ। हो जाऊं गति।
जग जाये प्यास।
जानो। मानो। हंसो तो।