Wednesday 25 August 2010

राख की तरह

(भाऊ समर्थ की स्मृति में)
राख की तरह
अंतिम सिगरेट खलास करो
उन्होंने कहा
और वे खूब हंसे
एक निश्छल हंसी
जो दीवार में सेंध लगा सकती थी
उस दिन जबकि श्रद्धा पराते
पढ़ रही थीं उनके अतीत के मधु-क्षण
वह अन्तिम सिगरेट
मैंने जी
मेरे होंठ, मेरी उंगलियां, मेरे फेफड़े
भर गये एक साथ सिगरेट और
हंसी से।
उनके हाथ सहसा मेरे हाथ में थे
मिलना चाहते होंगे हाथ
उस सिगरेट से
जो उनके खलास होने के बाद
बची रहनी है कुछ दिन और
मैं उस खलास की हुई अंतिम सिगरेट के एवज में
कहीं भीतर सुलग रहा हूं
उनके अदृश्य हाथों में
दबा हुआ उनकी निश्छल हंसी वाले होठों से
धीरे-धीरे
मेरी आत्मा झड़ रही है
राख की तरह।
(रचना तिथि-14 अप्रैल 1991)
नोट-नागपुर में रहने वाले चित्रकार भाऊ समर्थ से कई बार मिलना हुआ था। मैं उन दिनों पेंटिंग करता था। उनकी अंतिम मुलाकात के बारे में उनकी मृत्यु के बाद लिखी गयी यह कविता मेरी एक डायरी में दबी एक पुर्जी में लिखी कहीं पड़ी रह गयी थी। आज मिली तो आपसे शेयर कर रहा हूं।

Sunday 1 August 2010

तोड़ने की शक्ति

जाने क्यों अच्छी लगती हैं टूटने की आवाजें
जबकि बार-बार मुझे इंकार है ऐसी आवाजों को सुनने से

क्या हममें बसी है कोई पुरातन धुन
जिसकी लय देती है हमारी धमनियों को नई गति
और दिमाग को एक अजब सा सुकून

क्योंकि आखिरकार वही और वही है हमारी नियति

हालाांकि यह भी सच है कि हर समय हर घड़ी
नहीं होता शुभ किसी वस्तु का टूटने से रह जाना
यह टूटना ही वह सत्य है जिससे हमें होते जाना होता है
परिचित

न चाहते हुए भी
टूटने की क्रिया की स्वाभाविकता से हमें होना होता है बार-बार
दो चार
दरअसल हमें अपने अंदर टूटने की विवशता ही
हमें खुद करती है प्रेरित कुछ न कुछ तोड़ने को
यदि नहीं कर पाते हम
तो हो जाते हैं किसी टूटने की खुशी में शरीक

टूटते जाना एक उत्सव है
टूटना है एक संगीत
अर्थ का अंतिम बिन्दु
अनर्थ का चरम
दरअसल हमारा होना
टूटते जाने की एक क्रिया है

इस क्रिया में हमारा दिल बहलाव है कुछ न कुछ तोड़ते रहना
हम एक सच को खेल में तब्दील करते रहते हैं

जो अपने टूटने से जितना खाता है खौफ
तोड़ता है उतनी ही चीजें
वह उस बेचैनी को अभिव्यक्ति देता है जो है
उसके भीतर
हालांकि जब जब वह खुश होता है अपनी किसी सफलता पर
वह नापता है अपनी ऊंचाई
तोड़ने का शक्ति परीक्षण कर
वह इस बात को अनचाहे ही स्वीकार करता है
कि तोड़ने की शक्ति ही उसकी कुल उपलब्धि है

विस्तार है जो उसके भय का.

तैयारी

कपड़े तैयार थे
एकदम धुलधुलाकर
इस्त्री होकर
उनको देखो तो वे जैसे कह उठें
आओ चलें
और फिर सहसा जाना हुआ
मुझे
लगा सुन ली गई है कपडों की

उन्हीं के इशारे पर
हो रही है कूच

उन्हीं का किया धरा है सब कुछ
तबादला इस शहर से

उधर जहां कोई और है
अपरिचित शहर में मेरा इंतजार करता सा

फिर उसके बाद
नए शहर को
जब मैं कर चला पुराना
डरने लगा
कपडों की धज से

उनका साफ होना एक साथ
होना इस्त्री
रखा जना किसी आलमारी या सूटकेस में
डराने लगा
जैसे कि वे कर बैठेंगे कोई गाु मंत्रणा

उनका साथ होना
किसी खतरे के इशारे सा लगने लगा

मैं डरता हूं
कपडों के किसी विशेष इशारे की झंडी होने से

दरअसल मैं
हर चीज़ के झंडी होने के ख़िलाफ़ हूं

यह क्या कि कोई खो दे अपने होने को
और हो जाए कोई और संदेश
कोई इशारा
और उसका होना
बदल जाए न होने में

यह सब सोचते हुए
मैं बचना चाहता हूं
खुद अपने-आपको
कुछ और समझने से
समझने से ज्यादा
मानने से

मैं किसी और की रूह
और की देह
और की बात
होने से इनकार करता हूं
जो कि मैं
अंतत: हूं शायद

और इसी इनकार और स्वीकार के बीच
कहीं किसी बिन्दु पर
मेरा होना ही मेरा न होना और
न होना ही मेरा होना

आदमी कपडों की भाषा
शायद इसलिए समझता है
कि किसी किसी अर्थ में
मानवीय नियति के ही हिस्से हैं कपास
उसके बने सूत
या फिर वह कंबल
जिसकी बात कहते हैं कबीर

कपडे हमेशा
अपने होने व न होने के बीच
एक ऐसा फासला रखते हैं
जहां से हमें मिलती रहती है
किसी न किसी अनंत यात्रा की आहट।

वापसी

मैं अपने घर कब लौटूंगा!

जिसकी ख़ातिर मैं अपनों के अपनेपन से दूर रहा
जिसकी ख़ातिर मैं सपनों की हदबंदी को मज़बूर रहा
जिसको बनवाने की ख़ातिर रोज ही टूटा करता हूं
जिसको पाने की ख़ातिर मैं छूटा-छूटा करता हूं
जाने किस दीवाली में चौखट पर दीये बारूंगा
कब अपने ओसारे में मैं मुर्गी चूजे पालूंगा

मैं अपने घर अब लौटूंगा!

मैं जितना घर से दूर रहा बेगाना सा
हाल कोई जो पूछे लगता ताना सा
मैं सड़कें, गलियां, चेहरे ना पहचान सका
परदेश में खुद को आगंतुक भर मान सका
ख़त मिलते हैं पर बात वहीं रह जाती है
व्यथा नहीं बोली बतियाई जाती है

मैं अपने घर क्यों लौटूंगा?

टूटा मन, टूटी देह लिए तैयार हुआ
बरसों पहले का विद्रूप सा आकार हुआ
जाने संगी-साथी होंगे किस ओर-छोर
बस्ती गलियों का बदला होगा पोर-पोर
मैं जीते जी इतिहास सरीखा लगता हूं
मैं तो बस अब और किसी सा लगता हूं।

तुम्हारी दुनिया में मैं

अच्छा होता कि मेरी दुनिया होती निहायत ही मेरी
और तुम्हारी खलिस तुम्हारी
मेरी दुनिया में तुम होती मेरी तरह
और तुम्हारी दुनिया में मैं तुम्हारे मनमाफिक.

क्या है ऐसी कोई जुगत की दोनों की दुनिया रहे सलामत
एक दूसरे को बगैर पहुंचाए कोई ठेस.

होती
दोनों के बीच एक खिडक़ी
जिससे झांककर देखता मैं
कि रह रहा हूं मै कितने इतमीनान से
तुम्हारी दुनिया में.
तुम भी आती कभी पूछने हालचाल अपना.

क्या हमें नहीं चाहिए कोई और अपनी दुनिया में?

क्या हमें चाहिए आईनाघर?
जहां हम हों हमारी सूरत हो
हम हों और हो हमारी कल्पना
हम हों और हमारी पूरी होती अभिलाषाएं
हम हों और हमारे इशारों पर नाचती दुनिया
कितना अच्छा हो कि हम हों और हो दुनिया निहायत दूसरे की.

सपने

(देवदास के बहाने उसके रचनाकार शरदचन्द्र चट्टोपाध्याय को याद करते हुए)
मेरे पास कुछ नहीं था क्योंकि मेरे पास
केवल सपने थे
उनके पास कुछ नहीं था
क्योंकि उनके पास सब कुछ था
बस सपने नहीं थे
वे मेरे सपने खरीदना चाहते थे
मैं उन्हें दे आया मुफ्त
जो मेरी कुल संपदा थी
अब उनकी बारी थी
उन्हें सब कुछ लुटाना पड़ सकता था मेरे सपनों पर
और इतना ही नहीं
होना पड़ सकता है उन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी कर्जदार
वे अगर सचमुच डूबना चाहते हैं मेरे सपनों की थाह लेने.