Thursday 29 July 2010

मैं ज़रूर रोता

अगर वह कायम रहती अपने कहे पर
और उसके अन्दर-बाहर रह जाता वह मकान
जिसे वह अपना जन्नत कहती है

मैंने देखा, उस मकान के आगे
उग आयी सहसा एक सड़क
जिससे होकर आयेंगे उसके आत्मीय स्वजन
उसकी सखी सहेलियां
उनके बच्चे, डाकिया, अज़नबी
और वह भिखारी भी
जो बुढ़ापे की जर्जर अवस्था में
मुश्किल से चल पाता था

घर के आंगन में उग आये फूल
जिससे महकता है पास पड़ोस तक
घर में ज़गह है मुर्गियों के लिए
गाय के लिए
और मेहमानों के ठहरने के लिए भी
धीरे-धीरे तब्दील हो गया उसका घर
एक पूरे संसार में

मैं ज़रूर रोता
अगर उसका मकान सिर्फ़ उसका घर होता।

No comments:

Post a Comment