Friday 9 July 2010

धन्यवाद चीटियो धन्यवाद!!

कई दिनों बाद यकायक मुझे पता चला
मेरे लिखे पर बहुत बड़ी दावेदारी उन चीटियों की है
जो आराम से रह रही थी मेरे कम्प्यूटर के की-बोर्ड में
और मैं नज़र गड़ाये रहता था उनकी कारगुज़ारियों से बेपरवाह
कम्प्यूटर के स्क्रीन पर
जबकि में लिख रहा था दुनिया जहान पर
इस तरह जैसे कि मैं अकेला और केवल मैं ही सोच
रहा था तमाम गंभीर मसलों पर
और जैसे कि मेरा सोचना ही हल कर देगा मसलों को
और उन्हें लिख देना कोई बहुत बड़ी कारर्वाई हो अमल से मिलती जुलती या फिर उससे भी अहम
सहसा मुझे दिख गयी चींटी
और फिर मैंने उत्स जानना चाहा
आखिर कहां से आ गयी चींटी कम्प्यूटर के स्क्रीन पर
कहीं तो होगा उनका कुनबा
मैंने अनुभव से जाना है
कभी एकेली नहीं होती चींटी
आदमी के अकेलापन को मुंह चिढ़ाती हुई
चींटी का चेहरा हमारे पूर्वजों से कितना मेल खाता है आज भी

मैंने खोज डाला टेबिल जिस पर था कम्प्यूटर नहीं मिली वैसी ही कोई दूसरी चींटी
जैसी एक थी
हां वैसी ही
न जाने क्यों मुझे हर चींटी एक जैसी ही लगती है
सौ चीटियां में हर एक लगती है एकदम दूसरे जैसी
जैसे पेड़ की एक पत्ती का चेहरा मिलता है दूसरे से
आदमी का भी मिलता होगा कभी
फिलहाल तो नहीं
और खोज के उपक्रम में नज़र गयी की बोर्ड पर
ब्लैक की बोर्ड पर लाल-लाल छोटी चींटियां
न जाने कब से बना रखा था उन्होंने की बोर्ड को अपना ठिकाना
मैंने बहुत सोचा आखि़र क्या कर रही थीं वे की बोर्ड में
जबकि बाहर बेहद गर्मी पड़ रही थी क्या उन्हें यहां मिल रही थीं ठंडक
जो कम्प्यूटर में टाइप होते हुए अक्षरों से पहुंच रही थी उन तक
क्या उन्हें भली लग रही थी वह थरथराहट और वह लय और ताल
जो आदमी को आदमी से जोड़ने वाले शब्दों के ढाले जाने के उपक्रम में पैदा होती है
क्या उन्हें भली लग रहा थी उन उंगलियों की बेचैनी जो
शब्द में जान पैदा करने की कोशिश में उठती हैं
या वे लिख रही थी संवेदना के इतिहास में अपना योगदान
मेरे की बोर्डे से मेरे शब्दों की फांक में
या फिर मैंने नहीं स्वयं उन्होंने लिखवाई हो वह तमाम इबारतें
जिनके बारे में मैं सोच रहा था निकल रही हैं मेरे मन के किसी तहखाने से
क्या आदमी के काम में चीटिंयों ने हाथ बंटाने की ठान ली थी
मेरे हाथ, मेरी उंगलियों और पूरी मनुष्य जाति की ओर से
धन्यवाद! चीटियो धन्यवाद!!

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