(भाऊ समर्थ की स्मृति में)
राख की तरह
अंतिम सिगरेट खलास करो
उन्होंने कहा
और वे खूब हंसे
एक निश्छल हंसी
जो दीवार में सेंध लगा सकती थी
उस दिन जबकि श्रद्धा पराते
पढ़ रही थीं उनके अतीत के मधु-क्षण
वह अन्तिम सिगरेट
मैंने जी
मेरे होंठ, मेरी उंगलियां, मेरे फेफड़े
भर गये एक साथ सिगरेट और
हंसी से।
उनके हाथ सहसा मेरे हाथ में थे
मिलना चाहते होंगे हाथ
उस सिगरेट से
जो उनके खलास होने के बाद
बची रहनी है कुछ दिन और
मैं उस खलास की हुई अंतिम सिगरेट के एवज में
कहीं भीतर सुलग रहा हूं
उनके अदृश्य हाथों में
दबा हुआ उनकी निश्छल हंसी वाले होठों से
धीरे-धीरे
मेरी आत्मा झड़ रही है
राख की तरह।
(रचना तिथि-14 अप्रैल 1991)
नोट-नागपुर में रहने वाले चित्रकार भाऊ समर्थ से कई बार मिलना हुआ था। मैं उन दिनों पेंटिंग करता था। उनकी अंतिम मुलाकात के बारे में उनकी मृत्यु के बाद लिखी गयी यह कविता मेरी एक डायरी में दबी एक पुर्जी में लिखी कहीं पड़ी रह गयी थी। आज मिली तो आपसे शेयर कर रहा हूं।
Wednesday 25 August 2010
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