Sunday 1 August 2010

तैयारी

कपड़े तैयार थे
एकदम धुलधुलाकर
इस्त्री होकर
उनको देखो तो वे जैसे कह उठें
आओ चलें
और फिर सहसा जाना हुआ
मुझे
लगा सुन ली गई है कपडों की

उन्हीं के इशारे पर
हो रही है कूच

उन्हीं का किया धरा है सब कुछ
तबादला इस शहर से

उधर जहां कोई और है
अपरिचित शहर में मेरा इंतजार करता सा

फिर उसके बाद
नए शहर को
जब मैं कर चला पुराना
डरने लगा
कपडों की धज से

उनका साफ होना एक साथ
होना इस्त्री
रखा जना किसी आलमारी या सूटकेस में
डराने लगा
जैसे कि वे कर बैठेंगे कोई गाु मंत्रणा

उनका साथ होना
किसी खतरे के इशारे सा लगने लगा

मैं डरता हूं
कपडों के किसी विशेष इशारे की झंडी होने से

दरअसल मैं
हर चीज़ के झंडी होने के ख़िलाफ़ हूं

यह क्या कि कोई खो दे अपने होने को
और हो जाए कोई और संदेश
कोई इशारा
और उसका होना
बदल जाए न होने में

यह सब सोचते हुए
मैं बचना चाहता हूं
खुद अपने-आपको
कुछ और समझने से
समझने से ज्यादा
मानने से

मैं किसी और की रूह
और की देह
और की बात
होने से इनकार करता हूं
जो कि मैं
अंतत: हूं शायद

और इसी इनकार और स्वीकार के बीच
कहीं किसी बिन्दु पर
मेरा होना ही मेरा न होना और
न होना ही मेरा होना

आदमी कपडों की भाषा
शायद इसलिए समझता है
कि किसी किसी अर्थ में
मानवीय नियति के ही हिस्से हैं कपास
उसके बने सूत
या फिर वह कंबल
जिसकी बात कहते हैं कबीर

कपडे हमेशा
अपने होने व न होने के बीच
एक ऐसा फासला रखते हैं
जहां से हमें मिलती रहती है
किसी न किसी अनंत यात्रा की आहट।

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