Sunday 1 August 2010

तुम्हारी दुनिया में मैं

अच्छा होता कि मेरी दुनिया होती निहायत ही मेरी
और तुम्हारी खलिस तुम्हारी
मेरी दुनिया में तुम होती मेरी तरह
और तुम्हारी दुनिया में मैं तुम्हारे मनमाफिक.

क्या है ऐसी कोई जुगत की दोनों की दुनिया रहे सलामत
एक दूसरे को बगैर पहुंचाए कोई ठेस.

होती
दोनों के बीच एक खिडक़ी
जिससे झांककर देखता मैं
कि रह रहा हूं मै कितने इतमीनान से
तुम्हारी दुनिया में.
तुम भी आती कभी पूछने हालचाल अपना.

क्या हमें नहीं चाहिए कोई और अपनी दुनिया में?

क्या हमें चाहिए आईनाघर?
जहां हम हों हमारी सूरत हो
हम हों और हो हमारी कल्पना
हम हों और हमारी पूरी होती अभिलाषाएं
हम हों और हमारे इशारों पर नाचती दुनिया
कितना अच्छा हो कि हम हों और हो दुनिया निहायत दूसरे की.

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