Wednesday 30 June 2010

खुशी

मैं दरअसल खुश होना चाहता हूं

मैं तमाम रात और दिन
सुबह और शाम
इसी कोशिश में लगा रहा ता-उम्र
कि मैं हो जाऊं खुश
जिसके बारे में मैं कुछ नहीं जानता

नहीं जानता कि ठीक किस
..किस बिन्दु पर पहुंचना होता है आदमी का खुश होना
कितना फ़र्क होता है दुःख और खुशी में
कि खुशी आदमी को किस अक्षांश और शर्तों और
कितनी जुगत के बाद मिलती है

वह ठहरती है कितनी देर
क्या उतनी जितनी ठहरती है ओस की बूंद हरी
घासों पर

या उतनी जितनी फूटे हुए अंडों के बीच चूजे
हालांकि वह समय निकल चुका है विचार करने का
कि क्या नहीं रहा जा सकता खुशी के बगैर
तो फिर आखिर में इतने दिन कैसे रहा बगैर खुशी के

शायद खुशी की तलाश में जी जाता है आदमी
पूरी-पूरी उम्र

और यह सोचकर भी खुश नहीं होता
जबकि उसे होना चाहिए
कि वह तमाम उम्र
खुशी के बारे में सोचता
और जीता रहा
उसकी कभी न ख़त्म होने वाली तलाश में.

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